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राजा प्रदेशी और केशीकुमार श्रमण चारों ने ही लोहे की पोटलियाँ बाँध लीं और आगे चले। कुछ उसके साथियों ने ताँबे की पोटलियाँ बाँध लीं। किन्तु एक | दूर जाने पर ताँबे की खान मिली। तब उन्होंने सलाह की- | साथी बड़ा अड़ियल था। वह बोला- मैं अपने विचार बार-बार नहीं बदलता। जो एक बार ले लिया सो ले लिया।
राजन् ! तुम बताओ किसकी बात उचित थी ?
लोहा फेंककर हमें ताँबा ले लेना चाहिए।
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आगे चलने पर चाँदी और सोने की खान मिली। तीन चौथा साथी बोलासाथियों ने ताँबा फेंककर सोने की गठरियाँ बाँध लीं। चौथे से कहाभाई ! अब तो लोहा छोड़कर सोना बाँध लो। एक ही बार में दरिद्रता मिट जायेगी।
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तीनों का कहना उचित था। चौथा बिलकुल मूर्ख था। सोना मिलने पर लोहा लिये चलना सरासर मूर्खता है न ?
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तुम सब मिट्टी के माधो हो। बार-बार बदलते रहते हो। मैं अपने विचारों का पक्का हूँ। जो ले लिया वही लोहे की लकीर है।
तो आगे जाने पर हीरों की खान मिली। तीनों ने तो सोना फेंका और हीरों की पोटली बाँध ली। परन्तु चौथा अपनी पकड़ पर अड़ा रहा। जो एक बार ले लिया सो ले लिया।उसने लोहा ही रखा।
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