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राजा प्रदेशी और केशीकुमार श्रमण तीनों ने नगर में जाकर हीरे बेचे तो उनको खूब धन-वैभव मिला। वे आनन्द से जीवन बिताने लगे। चौथे ने लोहा बेचकर कुछ पैसा कमाया और फेरी लगाने का धंधा करने लगा।
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एक दिन फेरीवाला घूम रहा था। एक पुराने साधी ने उसे पहचान लिया। नौकर को भेजकर अपने महल में बुलाया और पूछा
तुम मुझे
सेठ साहब! आप पहचानते हो? भी मुझगरीब से
मजाक करते हो। कहाँ आप, कहाँ मैं, कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगु तेली।
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वह सेठ हँसा
मैं वही तुम्हारा साथी हूँ जिसने लोहा, चाँदी, सोना छोड़कर हीरे की पोटली बाँधी थी। मगर लाख समझाने पर भी तुमने अपनी जिद्द नहीं छोड़ी।
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