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________________ राजा ने मुनि से कहा परन्तु मुनिवर ! मेरे दादा भी शरीर और आत्मा को एक ही मानकर सदा। हिंसा आदि कर्म करते रहो संसार के मौज शौक में मस्त रहे तो मैं | अपने पुरखों का धर्म कैसे छोड़ दूँ ? Munge Jain Education International राजा प्रदेशी और केशीकुमार श्रमण राजन ! इसी प्रकार आत्मा रूपी दीपक का प्रकाश, जितना क्षेत्र मिलता है उतने में ही कभी विस्तृत होता है, कभी सिमट जाता है। राजन् ! झूठी जिद्द की पूँछ पकड़ने वाला बाद में पछताता है। तुम्हें भी उस लोह बणिक् की तरह बाद में 'पछताना पड़ेगा। S Gu आपका मतलब है, प्रकाश तो वही है, परन्तु क्षेत्र के कारण छोटा बड़ा हो जाता है। हाँ राजन! तुमने ठीक समझा है। आत्मा की चेतना में अन्तर नहीं है, परन्तु प्राणी जैसा शरीर धारण करेगा, उतने ही क्षेत्र में वह सीमित हो जायेगा। 20 For Private & Personal Use Only राजन ! मैं तुम्हें लोह बणिक् की कथा बताता हूँ। ध्यान से सुनो चलो हम लोहे की गठरिया बाँध लेते हैं। आगे शहर में जाकर बेचेंगे तो कुछ तो पल्ले पड़ेगा। चार बणिक् व्यापार । के लिए दूसरे नगर । की तरफ गये। रास्ते में उन्हें लोहे की खानें दिखाई दीं। तब एक व्यक्ति बोला www.jainelibrary.org
SR No.002855
Book TitleRaja Pradeshi aur Keshikumar Diwakar Chitrakatha 056
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Story
File Size21 MB
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