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________________ a त्वदृते राक्षसेन्द्रान्यः VII. 17.25c त्वद्गतस्य गतायुषः II. I3.20d त्वद्गतानि च सर्वेषाम् IV.67.35a त्वद्गतेनान्तरात्मना V. 36.42d ,, VI. II8.gd त्वद्गतौ सुकृता मतिः II. 45.26b त्वद्दर्शन कृतं यशः V. 35.78b त्वदर्शनकृतोत्सवौ V. 35.23d स्वद्दर्शनकृतोत्साहः V. 38.50c त्वदर्शनकृतोत्साहम् V. 37.25a त्वदर्शनकृतोत्साही V. 40.15c ,, 67.28a त्वदर्शनसमुत्सुकः VI. II3.13d त्वदर्शनसमुत्सुकाः V. 35.6gb त्वदर्शने कृतोत्साहाः V. 35.68a. , विशुद्धात्मा IV. 33.36a त्वद्धितार्थमिहागता II. 7.2Id त्वद्वन्धुजनवाहिनः II. 52.47b त्वदलं समवष्टभ्य VII. 27.9c त्वद्भक्त्या पुरुषर्षभ V. 65.19d , भरतः पुरे III. 16.27d त्वद्भयात्सख्यमिच्छता VI. 7.7b त्वद्भयान्नानुभाषते II. 18.2od त्वद्भातरं वानरवंशनाथम् IV. 33.56d त्वयुक्तम सितेक्षणे III. 46.27b त्वद्रूपेण दिवौकसा VII. 30.40b त्वद्वशं प्रतिपत्स्यते VI. 64.33d त्वद्वशे वर्तमानेन IV. 18.56c त्वद्वाक्यमसितेक्षणे VI. 34.3b त्वद्वाक्यसमनन्तरम् VI. 85.5d त्वद्वाक्यैर्न तु मां शक्यम् III. 40.4a त्वद्विधः कामवृत्तो हि III. 37.7a स्वद्विधं मदमोहितम् IV. II.36d स्वद्विधा न हि शोचन्ति II. 72.24c III. 66.14a त्वद्विधा न हि शोचन्ति VII. 52.10c स्वद्विधानां कृतात्मनाम् IV. 8.6b , तु नारीणाम् III. 18.2c ,, न सदृशम् IV.7.5c ,, महात्मनाम् VI. 2.15d ,, वनौकसाम् IV. 43.3b त्वद्विधान्भिन्नमर्यादाम् IV. 18.25e त्वद्विधाः परुषर्षभ IV. 35.11b ,, परुषर्षभाः VII. 52.14b त्वद्विधा बुद्धिसंपन्नाः III. 67.7c त्वद्विधास्तु गुणैर्युक्ताः II. II7.28a त्वद्विधेषु नृशंसेषु III. 45.23c त्वद्विधर्धर्मचारिभिः IV. I7.38d त्वद्विधो न विपद्यते VI. 83.16d मद्विधश्चापि II. I05.340 , वक्तुमर्हति II. 23.6d , वाऽपि मित्राणाम् IV. 39.30 त्वद्विनाशात्करोम्यद्य III. 29.24c त्वद्विनाशेन दुःखिताम् VI. III.75d त्वद्वियोगान मे कार्यम् II. 21.26a त्वद्वियोगान्महीपतिः III. 66.4b त्वद्वियोगेन दुःखात: V. 34.34a , मे राम II. 29.5c ,, शोचतीम् III. 72.26b स्ववीर्यं द्रष्टुकामा हि IV. 66.35c त्ववृद्धौ मम वृद्धिश्च II. 7.22c त्वनसूयानसूयया II. II8.1b त्वनेकरूपाम वितर्कितां पुरा II. 69.211) त्वं तं निपतितं भूमौ V. 67.15c त्वन्तरिक्षादभाषत VII. II0.8b त्वं तस्य भव वश्यश्च II. 30.9c ,, तार शिबिकां शीघ्रम् IV. 25.17a ,, तिष्ठेनं निहन्म्यहम् VII. 22.31d ,, तु कामप्रधानश्च IV. 17.33a |,,, कैशोरकाभ्रष्टः VI. 64.3c Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002795
Book TitleValmiki Ramayana Pada Suchi Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGovindlal H Bhatt
PublisherOriental Research Institute Vadodra
Publication Year1966
Total Pages1190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size26 MB
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