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________________ ४३३ भावी वृत्तियां दो," (डब्ल्यू० टी० डी० बारी द्वारा 'सोर्सेज आव इण्डियन ट्रेडिशन' में उद्धृत, न्यू यार्क, १६५८, पृ० ६५६ ) | देखिए अथर्ववेद (१२।१।४५) जहाँ सभी मनुष्यों के, जिनकी माता पृथिवी है, सार्वभौम भ्रातृत्व के विषय में उक्ति है। धर्मशास्त्र के इतिहास के अन्तिम खण्ड की परिसमाप्ति कठोपनिषद् एवं रवीन्द्रनाथ ठाकुर की गीताञ्जलि के उद्धरण से की जा रही है उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वराशिबोधक । सुरस्य धारा निशिता दुरत्या दुर्गपथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ ( ३ | १४ ) "उठो, जागो तथा श्रेष्ठ (गुरुओं) को प्राप्त कर (सत्य को ) समझो छुरे की तीक्ष्ण धार को पार करना कठिन है; इसी प्रकार विज्ञजन कहते हैं कि (आत्मानुभूति का) मार्ग बड़ा कठिन है।" जहाँ मन निर्भय हो और सिर ऊँचा हो; जहाँ ज्ञान स्वतन्त्र है; जहाँ विश्व संकीर्ण घरेलू दीवारों से विभिन्न टुकड़ों में न बँट गया हो; जहाँ शब्द सत्य की गहराई से प्रस्फुटित होते हैं; जहाँ श्रान्तिहीन प्रयास अपने बाहुओं को पूर्णता की ओर बढ़ाते हैं; जहाँ तर्क की निर्मल धारा मृत आचरण की निर्जन मरुभूमि की बालुका में अपना पथ भूल न गयी हो; जहाँ पर तुम्हारे द्वारा मन सतत विशाल होते हुए विचार एवं कर्म की ओर ले जाया जाता हैउसी स्वतन्त्रता के स्वर्ग में, हे पिता, मेरा देश जगे ! ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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