SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३२ धर्मशास्त्र का इतिहास हो रहे हैं । हमें एक ओर अपनी संस्कृति के अमर सिद्धान्तों को नहीं छोड़ना है, किन्तु यह भी सोचना है कि हमारे देशवासी सांसारिक सुख की उपलब्धि में प्रतिद्वन्द्विता में पीछे भी न पड़ जायें। हमारे देश में बहुधा कुछ लोग बहुत अल्प अवस्था में ही वैराग्य धारण कर लेते हैं और यह स्थिति आज भी है, उधर पाश्चात्य देशों में अत्यन्त कार्यशीलता से लोगों ने कुछ शतियों के भीतर अपार सम्पत्ति एकत्र कर डाली है। अत: जब आज हमारे नेता हमारे समाज को नवीन रूप देना चाहते हैं तो उन्हें ऐसे गुणों की उपलब्धि करनी चाहिए, जिनके द्वारा वे स्थितप्रज्ञ (पूर्णरूपेण विकसित या आदर्शमय आत्मा) हो जायें (भगवद्गीता २१५५-६८) या भगवान् के व्यक्ति (वही १३।१३१८) हो जायें। हमारे प्राचीन धर्म एवं दर्शन के आधार पर ही सामाजिक सुधारों एवं राजनीति के उपदेश होने चाहिए। यदि हमारे देश के अधिक लोग एवं हमारे नेता धर्म एवं आध्यात्मिकता को छोड़ देंगे तो सम है कि हम लोग आध्यात्मिक जीवन एवं सामाजिक उत्थान को खो बैठेंगे। इस विषय में यहाँ अधिक कहना सम्भव नहीं है। देखिए, गत अध्याय-३३ । अति प्राचीन काल से ही भारत के सभी धर्मों ने (बौद्ध एवं जैन को छोड़ कर) एक तत्त्व अर्थात परमात्मा पर तथा आत्मा की अमरता पर विश्वास किया। विज्ञान एवं उसके चमत्कारों के कारण कुछ लोग दम्भ एवं अहंकार में आ गये हैं और परमात्मा की भावना का उपहास करते हैं। किन्तु उन्हें जानना चाहिए कि विज्ञान केवल गौण कारणों पर ही प्रकाश डालता है, वह मनुष्य की अन्तिम परिणति एवं कारण के विषय में मूक ही रहता है । यह जीवन के उद्देश्य पर प्रकाश नहीं डाल सकता और न यह नैतिक मूल्यों के विषय में ही कछ बता सकता है। आज की और आने वाली पीढ़ियों को ऐसे वातावरण में प्रशिक्षित करना है जहाँ आध्यात्मिक जीवन, सत्य-प्रेम, भ्रातृभावना, शान्ति-प्रेम एवं दलित के प्रति करुणा एवं सहानुभूति आदि परम पुनीत गुणों को सभी लोग प्राप्त करने का उद्योग करें। भारत के करोड़ों लोगों के लिए थोडे-से शब्दों में आचरण-संहिता उपस्थित करना अत्यन्त कटिन है। किन्तु उनके लिए जो सीमित ढंग से शिक्षित हैं और व्यस्त जीवन बिताते हैं, उदाहरणस्वरूप कछ निर्देश दिये जा रहे हैं। अन्य जातियों के स्पर्श से उत्पन्न अपवित्रता तथा कुछ लोगों की छाया से उद्भूत अपुनीतता की भावना का परित्याग होना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने क्रोध में आकर कहा था--"आज के भारत का धर्म है 'मुझे न स्पर्श करें" (वर्क स, खण्ड ५, प० १५२) । प्राचीनता पर आधारित परम्पराओं एवं रूढ़ियों की जांच तर्क एवं विज्ञान के आधार पर की जानी चाहिए। विश्व के मूल, ग्रहणों के कारण, आदि के बारे में जो पौराणिक गाथाएँ हैं उन्हें आज के वैज्ञानिक ज्ञान के प्रकाश में त्याग देना चाहिए और अब उन्हें आज की धमिक बातों से सर्वथा हटा देना चाहिए, अब उन्हें केवल कपोल कल्पित ही मानना चाहिए । बहुत से क्रिस्तान (ईसाई) एवं हिन्दू-मुसलमान ऐसा विश्वास करते हैं कि स्वर्ग ऊपर है और नरक नीचे । किन्तु भाष्यकार शबर ने प्रथम शती में ऐसा उद्घोष कर दिया कि स्वर्ग कोई स्थल नहीं है। अत: आज के लोगों के लिए प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में उल्लिखित स्वर्ग एवं नरक से सम्बन्धित धारणाएँ विश्वास की बातें नहीं हो सकतीं। आधुनिक विज्ञान, पाश्चात्य साहित्य एवं विचारधारा ने मूल्यों, ध्येयों एवं संस्थागत धारणाओं के मुख को मोड़ दिया है। प्राचीन विश्वास टूट रहे हैं और नये घर कर रहे हैं। प्राचीन ढाँचे गिरकर चूर-चूर हो रहे हैं और नये आदर्श खड़े होते जा रहे हैं। किन्तु हो चाहे जो, हमें समाज को इस प्रकार नियमित करना है कि कुटुम्ब एक सामाजिक इकाई के रूप में अवस्थित रहे, प्रत्येक बच्चे को, वह चाहे जिस वर्ग या जाति का हो, शिक्षा के क्षेत्र में समान अवसर प्राप्त हो, मनुष्य का आह्निक कर्म दैवी कर्म एवं पूजा की संज्ञा पाये तथा धन-सम्बन्धी विषमताएँ दूर हो जायें। स्वामी विवेकानन्द ने बहुत पहले कहा है-'अबोध भारतीय, दरिद्र एवं हीन भारतीय, ब्राह्मण भारतीय नीच जाति का भारतीय मेरा भाई है।' “दुहराओ एवं रात-दिन प्रार्थना करो-'हे गौरीश, मुझे मनुष्य बना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy