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धर्मशास्त्र का इतिहास रूप से नौकरी देना सरल नहीं है। राज्य को चाहिए कि वह बेकारी की समस्या का हल उपस्थित करे, वह न केवल साहित्यिक शिक्षा का प्रबन्ध करे, प्रत्युत वह व्यावसायिक एवं प्राविधिक प्रशिक्षण के कार्य को कई गने वेग से बढाये। इन बातों पर हम यहाँ अधिक नहीं लिख सकेंगे ।
अब हम हिन्दू समाज एवं धर्म के सधार एवं पुनर्व्यवस्था पर विचार करेंगे । पूर्तगाली १५वीं शती के अन्त में यहाँ आये और उन्होंने भारत के पश्चिमी तट पर कुछ भुमि प्राप्त कर ली। किन्तु धार्मिक अत्याचार एवं असहिष्णुता के कारण उन्होंने हिन्दू समाज पर कोई अधिक प्रभाव नहीं डाला। किन्तु अंग्रेजों के साथ बात दूसरी थी, वे तो व्यापार, धन एवं शक्ति के इच्छुक थे। सन् १७६५ से अंग्रेजों का जो प्रभाव जमा और भारत के अधिक भागों पर उनका जो आधिपत्य स्थापित हुआ, उससे भारतीय क्रमशः अंग्रेजी साहित्य एवं आधुनिक विज्ञान के सम्पर्क में आने लगे। आधुनिक काल में सर्वप्रथम सुधारक थे राजा राममोहन राय (१७७२-१८३३), जो बंगाली थे। उन्होंने सन् १८२८ में ब्रह्म-समाज की स्थापना की। भारतीय समाज एवं धर्म में सुधार की व्यवस्था करने वालों में, कछ विशिष्ट नाम ये हैं-देवेन्द्रनाथ ठाकर (१८१७-१६०५) केशवचन्द्र सेन (१८३८-१८८४), ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती (१८२४१८८३, जिन्होंने सन १८७७ में आर्य समाज की स्थापना की और केवल वेदों को ही प्रमाण माना), रामकृष्ण परमहंस (१८३४-१८८६) एवं उनके महान् शिष्य स्वामी विवेकानन्द (१८६३-१६०२, जिन्होंने वेदान्त के प्रचार के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की और दरिद्रों की सहायता के लिए मिशन द्वारा एक महान अभियान चलाया), महादेव गोविन्द रानाडे (१८४२-१६०१, जो बम्बई के प्रार्थना-समाज से घनिष्ट रूप से सम्बन्धित थे), आगरकर , फुले, रवीन्द्रनाथ ठाकुर (१८६१-१६४१), गान्धीजी (१८६६-१६४८), डा० कर्वे (जिन्होंने सन् १६१६ में नारियों का विश्वविद्यालय स्थापित किया)। इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देखिए एस० नटराजन कृत 'ए सेंचुरी आव सोशल रिफार्म ' (एशिया पब्लिशिंग हाउस, बम्बई), जी० एन० फहर कृत 'माडर्न रिलिजिएस मूवमेण्ट्स इन इण्डिया' (मैक्मिलन, १६१७), डब्ल्यू० टी० डी० वर्य कृत 'सोर्सेज आव इण्डियन ट्रेडिशन' (न्यूयार्क १६५८, पृ० ६०४-६४६)।
___आजकल भारत में विचारों की बाढ़ आ गयी है और भाँति-भाँति की विचारधाराओं का उद्गार हो रहा है। आज के बहुत-से-देशवासी अपने धर्म से प्रेरणा नहीं ग्रहण करते । यह धर्म का दोष नहीं है, यह हमारे पूर्ववर्ती लोगों एवं हमारा दोष है कि हमने अपनी संस्कृति एवं धर्म के सारतत्त्व को सबके समक्ष प्रकट नहीं किया और अंधविश्वासों एवं भ्रामक अवधारणाओं से उत्पन्न अनावश्यक तत्त्वों को पृथक् करके प्रमुख सार-तत्त्वों पर बल नहीं दिया। आज के सामान्य जन प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों एवं आधनिक वैज्ञानिक ज्ञान के बीच पाये जाने वाले विभेदों से व्यामोहित से हो गये हैं। इसका दु:खद परिणाम यह हुआ है कि सदाचार के परम्परागत जीवन-मूल्य विच्छिन्न होते जा रहे हैं और कतिपय विचारधाराएँ हमें बाँधती जा रही हैं, पुराने पाश टूट रहे हैं और नये पाशों से हम बँधते जा रहे हैं। आज धार्मिक एवं आध्यात्मिक बातों पर बहुत-सी स्पष्ट विवेचित धारणाएँ उपस्थित हो गयी हैं। समाज का एक वर्ग अपने को सनातनी कहता है और विश्वास रखता है कि परम्परानुगत सदाचार-संहिता की स्थापना हमारे विचारशील ऋषियों-मुनियों द्वारा हुई है और आज के अधकचरी बुद्धि वाले लोगों को किसी प्रकार का परिवर्तन करने का साहस नहीं करना चाहिए। एक अन्य वर्ग (सनातनियों से सम्बद्ध) ऐसा है. जिसके लोगों ने आज के जीव-विज्ञान एवं उन शास्त्रों का अध्ययन किया जो मनष्य जाति की उन्नति से सम्बन्धित है। ऐसे लोगों का कथन है कि हमारी परम्पराएँ एवं रूढ़ियाँ, जो जाति व्यवस्था एवं विवाह सम्बन्धी प्रतिरोधात्मक नियमों पर
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