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हिन्दू संस्कृति एवं सम्पता की मौलिक एवं मुख्य विशेषताएँ
जाति प्रथा के अन्तर्धान या तिरोहित हो जाने का ( यह जब भी सम्भव हो सके ) यह तात्पर्य नहीं है कि हिन्दू धर्म में जो कुछ है और जो कुछ सहस्रों वर्षों से पूजित एवं श्लाघ्य रहा है अथवा जिसके लिए यह इतनी शतियों तक अवस्थित रहा है वह सब तिरोहित हो जायगा ।
हमें अपने अधःपतन के मूल में केवल जाति प्रथा को या इसे ही मौलिक कारण समझ कर लगातार एक ही स्वरालाप नहीं करते रहना चाहिए। मुसलमानों में कोई जाति प्रथा नहीं है तब भी बहुत से ऐसे मुसलमानी देश हैं। जो अब भी पिछड़े हुए हैं। चीन, जापान एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशो में हमारे देश की भांति जाति प्रथा नहीं है तथापि प्रथम दो देश आज से सौ वर्ष पूर्व पिछड़े हुए थे और दक्षिण-पूर्वी एशिया के बहुत-से देश एक बहुत छोटे देश हालैण्ड के (जिसकी जन-संख्या आज भी केवल सवा करोड़ है) अधीन थे । सन् १८१८ ई० से जब अंग्रेजों न दक्षिण पर अपना अधिकार जमाया, लगभग १३० वर्षों तक जो भी भारत में राजकीय शक्ति विद्यमान थी वह लगभग ६०० छोटी-छोटी रियासतों में विभक्त थी, जिनमें क्षत्रियों एवं अन्य लोगों का आधिपत्य था, उन ६०० रियासतों पर लगभग एक दर्जन से अधिक ब्राह्मणों का आधिपत्य नहीं था । जो कुछ भी व्यापार एवं वाणिज्य था अथवा जो कुछ अंग्रेजों ने भारतीयों को इस विषय में अनुमति दे रखी थी, वह पारसियों, भटियों, बनियों मारवाड़ियों, जैनों एवं लिंगायतों तक ही सीमित था, ब्राह्मणों को व्यापार एवं वाणिज्य में कोई भाग प्राप्त न था । तिलक ऐसे ब्राह्मण राजनीतिज्ञों न े ही स्वदेशी का नारा बुलन्द किया। बंगाल तथा उसके सन्निकट के अन्य भूमि-भागों को. जहाँ लार्ड कार्नवालिस द्वारा जमीन्दारी प्रथा प्रचलित की गयी थी, छोड़कर सभी स्थानों में कृषि तथा लेन-देन अधिकांशतः अब्राह्मण लोगों में पाया जाता था । शतियों तक अधःपतन के गर्त में जो हम पड़ते गये उसका एक प्रमुख कारण था हममें (चाहे हम उच्च हों या नीच) कुछ विशिष्ट गुणों एवं विचारधाराओं का अभाव । अतः अब हमें जाति प्रथा को ही लेकर बार-बार अपने अधःपतन के कारण के लिए अपने को अपराधी नहीं सिद्ध करते रहना चाहिए, प्रत्युत इसके दोषों को दूर करने के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए और कर्तव्य के लिए कर्तव्य करने की प्रवृत्ति, उच्च उद्योग, उच्च नैतिक चरित्र, राष्ट्रीयता, स्वतन्त्रता एवं न्याय ऐसे सद्गुणों को अपने में उत्पन्न करना चाहिए ।
(७) आश्रम - हमारी संस्कृति की एक विशेषता है आश्रम पद्धति, जो ईसा के पूर्व कई शतियों तक समाज में विद्यमान थी । वैदिक संहिताओं या ब्राह्मणों में 'आश्रम' शब्द नहीं आता । श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ६।२१ ) में 'अत्याश्रमिभ्यः' शब्द आया है जिससे व्यक्त होता है कि 'आश्रम' शब्द उन दिनों प्रचलित था । एक व्यापक शब्द, जिसमें बहुत सारी बातें समन्वित होती हैं, तभी बन पाता है जब उसके अन्य सहयोगी अंग कई शतियों तक प्रचलित हो गये रहते हैं। 'श्राद्ध' शब्द प्राचीन वैदिक वचनों में नहीं पाया जाता, यद्यपि पिण्डपितृयज्ञ (अग्निहोत्री द्वारा प्रत्येक अमावास्या पर किया जाने वाला), महापितृयज्ञ (साकमेध नामक चातुर्मास्य कृत्य में सम्पादित होने वाला) एवं अष्टका कृत्य (ये सभी पितरों के सम्मान में किये जाते हैं), आरम्भिक वैदिक साहित्य में भली भाँति विदित थे । इसी प्रकार कुछ आश्रम निश्चित रूप से ऋग्वेद के काल में ज्ञात थे। सूत्र साहित्य के काल के बहुत पहले से आश्रमों की संख्या चार थी, यथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ्य या वैखानस ( गौतम ३।२ ), संन्यास या मौन या परिव्राज्य या प्रव्रज्या या भिक्षु ( गौतम ३२ ) 14 आश्रमों का वर्णन इस महाग्रन्थ के मूल खण्ड २ के पृष्ठ ३४६
१५. चत्वार आश्रमा गार्हस्थ्यमाचार्यकुलं मौनं वानप्रस्थ्यमिति । आप० घ० सू० (२/६/२१1१ ), शंकराचार्य द्वारा वे० सू० (३|१|४७ ) के भाध्य में उद्धत ।
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