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________________ Yoo धर्मशास्त्र का इतिहास विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार धर्म विभिन्न वर्गों में विभाजित हुआ है। एक विभाजन के अनुसार धर्म के दो प्रकार हैं-श्रौत (वेदों पर आधृत) एवं स्मार्त ( स्मृतियों पर आधृत ), एक अन्य अपेक्षाकृत अधिक व्यापक विभाजन के अनुसार धर्म के छ: प्रकार हैं-(१) वर्ण धर्म (वर्षों के कर्त्तव्य एवं अधिकार), (२) आश्रम धर्म (आश्रमों के विषय में नियम), (३) वर्णाश्रम धर्म (ऐसे नियम जो किसी एक वर्ण के व्यक्ति के किसी विशिष्ट आश्रम से सम्बन्धित हों, यथा ब्राह्मण ब्रह्मचारी को पलाश दण्ड धारण करना चाहिए), (४) गुणधर्म ( किसी पद पर आसीन व्यक्ति के लिए नियम, यथा राजा से सम्बन्धित नियम ), (५) नैमित्तिक धर्म (किसी विशिष्ट अवसर पर किये जाने वाले कृत्यों से सम्बन्धित नियम आदि, यथा ग्रहण पर या प्रायश्चित्त सम्बन्धी) तथा (६) सामान्य धर्म (ऐसे कर्तव्य जो सबके लिए हों)। इस विवेचन से हम हिन्दू संस्कृति की एक अन्य विशेषता की ओर पहुँचते हैं, यथा-वर्ण एवं जातियाँ । (६) वर्ण एवं जातियाँ । वर्णों की उत्पत्ति, विभाजन, जाति-प्रथा, चारों वर्षों के कर्तव्यों एवं अधिकारों के विस्तार के साथ इस महाग्रन्थ के मूल खण्ड २, पृ० १६-१६४ में पढ़ लिया है । यह प्रदर्शित किया गया है कि 'वर्ण' शब्द (जिसका अर्थ है रंग) ऋग्वेद में आर्यो एवं दासों के लिए प्रयुक्त हुआ है और आर्य एवं दास एक-दूसरे के विरोधी दो पृथक् दल थे। ऋग्वेद में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय शब्द प्रयुक्त हैं किन्तु 'वर्ण' शब्द स्पष्ट रूप से इनके लिए नहीं प्रयुक्त हुआ है। 'वैश्य' एवं 'शूद्र', शब्द ऋग्वेद में पुरुषसूक्त (ऋ० १०६०।१२) को छोड़कर कहीं भी नहीं आये हैं किन्तु वहाँ भी इनके संदर्भ में 'वर्ण' शब्द नहीं प्रयुक्त हुआ है। बहुत से आधुनिक विद्वान पुरुषसूक्त को पश्चात्कालीन क्षेपक मानते हैं । यह सत्य प्रतीत होता है कि पुरुषसक्त के प्रणयन के समय समाज चार दलों में विभक्त था, यथा-ब रक, विद्वान लोग, पुरोहित), क्षत्रिय (शासक एवं योद्धागण), वैश्य (साधारण लोग, जो कृषि एवं शिल्प में लगे हुए थे) एवं शूद्र (जो भृत्य थे या दासकर्म करते थे) । इस प्रकार का विभाजन अस्वाभाविक नहीं है और आज भी ऐसा विभाजन बहत से देशों में विद्यमान है। इंग्लैण्ड में अभिजात कटम्ब हैं, मध्यम श्रेणी के लोग हैं तथा मिलों एवं फैक्टरियों में काम करने वाले लोग हैं। वे आवश्यक रूप से जन्म से ऐसे नहीं हैं, किन्तु अधिकांश में उसी प्रकार हैं। हमने देख लिया है कि याज्ञवल्क्य स्मति के काल तक ब्राह्मणों तथा अन्य वर्गों के बीच अन्तविवाह प्रचलित था (देखिए अध्याय २६), जिसे इसने ठीक नहीं समझा है और तीन उच्च वर्गों को शूद्रा से विवाह करने को मना किया है । हमारे पास कोई ऐसा प्रमाण नहीं है जो यह सिद्ध कर सके कि वैदिक युग में चारों वर्गों के बीच अन्तविवाह या अन्तर्भोजन नहीं होता था। वाज० सं० (३०।६-१३), काठक सं० (१७।१३), त० ब्रा० (३।४।२-३) में तक्षा, रथकार, कुलाल, कर्मार, निषाद सूत आदि शिल्पकारों का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह नहीं पता चल पाता कि वे इन ग्रन्थों के काल में जातियों के रूप में बन गये थे कि नहीं। अथर्ववेद (३१५१६-७) में रथकार, कार एवं सूत का उल्लेख है। यह सम्भव है कि छा० उप० (५।१०।७) के काल तक चाण्डाल लोग (कुत्तों एवं सूअरों की भाँति) अस्पृश्य हो गये थे और पौल्कस (३।३०।११) में भी प्रयुक्त है तथा 'सयुजा' (अर्थात सय जौ) शब्द ऋ० (१११६४।२०) में आया है। सायण की पुरुषार्थसुधानिधि (मद्रास गवर्नमेण्ट ओरिएण्टल मैनस्क्रिप्ट सीरीज, श्री चन्द्रशेखरन द्वारा सम्पादित, १६५५) के मोक्ष स्कन्ध (२।२-३) में इस प्रकार आया है-'मुक्तिर्नाना विधा प्रोक्ता सामुज्यादिप्रभेदतः । तत्र सायुज्यरूपाया मुक्तेः साक्षात्तु कारणपम् । सम्यग्ज्ञानं न कर्मोक्तं नानयोश्च समुच्चयः । कर्मणैव हि सिध्यन्ति पुंसामन्याश्च मुक्तयः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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