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________________ ३४० धर्मशास्त्र का इतिहास पांच हैं, यथा-वायु, आकाश, अग्नि, जल एवं पृथिवी; इन्हीं से सभी जीव बने हैं, पाँच इन्द्रियाँ है, ज्ञानेन्द्रियों के पांच पदार्थ या विषय हैं और पांच गुण हैं--शब्द, स्पर्श, रूप (रंग), रस (स्वाद) एवं गन्ध; इसके उपरान्त इनके कतिपय उप-भागों का उल्लेख है। अध्याय १७८ (= १८६, चित्रशाला) में पाँच प्राणों एवं उनके कार्य-क्षेत्रों का वर्णन है। अध्याय १७६-१८० (=१८६-१८७, चित्रशाला) में 'जीव' की चर्चा है और अन्त में कहा गया है कि शरीर (देह) नाशवान् है, आत्मा एक देह से दूसरी देह में जाता है और योग द्वारा व्यक्ति परमात्मा में आत्मा को देख सकता है। अध्याय २०० (-२०७ चित्रशाला) में आया है कि पुरुषोत्तम ने पांच तत्त्व निर्मित किये, वे जलों पर लेट गये, उनकी नाभि से सूर्य के समान देदीप्यमान एक कमल निकला, जिससे ब्रह्मा प्रकट हुए जिन्होंने अपने मन से सात पुत्र उत्पन्न किये, यथा-दक्ष, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह एवं ऋतु । दक्ष की कई पुत्रियाँ थीं (सबसे बड़ी थी दिति), इन पुत्रियों से दैत्यों, आदित्यों, अन्य देवों, काल एवं इसके भागों, पृथिवी, चार वर्णों, सभी प्रकार के मनुष्यों, आन्ध्रों, पुलिन्दों, शबरों एवं अन्यों की उत्पत्ति दक्षिणापथ में तथा उत्तरापथ में योनों (यवनों), काम्बोजों, गान्धारों, किरातों, बर्बरों आदि की उत्पत्ति हुई। अध्याय २२४ (२३१ चित्र०) में कहा गया है कि आरम्भ में ब्रह्म था, जो अनादि एवं अनन्त है तथा बोधगम्य नहीं है और वह निमेष से लेकर युगों तक एवं उनकी विशेषताओं तक काल का विभाजन करने वाला है । यहीं पर वे श्लोक आते हैं जो मनुस्मृति (११६५-६७, ६६-७०, ७५-७७, ८१-८३, ८५-८६) के समान हैं। यह बताना कठिन है कि किसने किसका अनुकरण किया है, क्योंकि मनुस्मृति (१०।४४) ने भी पौण्ड्रकों, आंद्रों, द्रविड़ों, काम्बोजों, यवनों, शकों, पारदों, पलवों, चीनों, किरातों, दरदों एवं खशों का उल्लेख किया है जो मौलिक रूप में क्षत्रियों के उप विभाजन या उपजातियां (क्षत्रिय जातयः) थे, किन्तु अब ब्राह्मणों से सभी प्रकार के सम्पर्क टूट जाने तथा धार्मिक संस्कारों (यथा, उपनयन आदि) के बन्द हो जाने के कारण शूद्रों की श्रेणी में परिगणित हो गये हैं । शान्ति० के अध्याय ३११ में सृष्टि का उल्लेख सांख्य के पारिभाषिक शब्दों में हुआ है, केवल ब्रह्मा को रख दिया गया है। ब्रह्मा (जो महान् कहे गये हैं) हिरण्यगर्भ में उत्पन्न हुए, वे अण्ड के भीतर एक वर्ष तक रहे, इसके उपरान्त उन्होंने अण्ड के दो भागों (स्वर्ग एवं पृथिवी) में अन्तरिक्ष की रचना की, अहंकार से पञ्च तत्त्वों की उत्पत्ति हुई, इसके उपरान्त उनके पाँच गुण उल्लिखित हैं। आश्वमेधिक पर्व (अध्याय ४०-४२) शान्ति० (अध्याय ३११) के समान है और उसमें सृष्टि-क्रम यों है—अव्यक्त-महत्-अहंकार-पञ्चतत्त्व । अन्तर केवल यही है कि श्लोक २ में महान् को विष्णु, शम्भु, बुद्धि के नाम से कहा गया है और बहुत से उनके पर्यायवाची शब्द आ गये हैं। ___याज्ञवल्क्यस्मृति (३।६७-७०) में ऐसा उल्लिखित है कि एक आत्मा से बहुत-से आत्मा उसी प्रकार निकलते हैं जिस प्रकार एक प्रज्ज्वलित लौहपिण्ड से स्फुलिंग फूटते हैं और अजन्मा एवं अविनाशी आत्मा देह के सम्पर्क में है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा पञ्च तत्त्वों की रचना करता है, यथा-आकाश, वाय, तेज, जल एवं पृथिवी, जिनमें आगे आने वाला प्रत्येक तत्त्व गुणों का आधिक्य ग्रहण करता जाता है, (परमात्मा) जब जीवात्मा के रूप में प्रकट होता है तो वह (अपने शरीर के लिए) ये ही तत्त्व ग्रहण करता है। इसके उपरान्त स्मृति गर्भाधान, भ्रूण आदि का उल्लेख करती है, मानव-शरीर में स्थित अस्थियों, स्नायुओं, मांसपेशियों की संख्या बताती है और धोषित करती है कि सम्पूर्ण विश्व परमात्मा से ही प्रकट होता है तथा जीवात्मा तत्त्वों से ही प्रकट होता है (अर्थात् उसका शरीर इन्हीं तत्त्वों से बना हुआ है)। आत्मा अनादि है, अजन्मा है, किन्तु यह शरीर के घनिष्ठ संपर्क में आता है जो असत्य भावनाओं, सृष्णाओं एवं द्वेषों से प्रभावित कर्मों के कारण है (३।१२५) । कतिपय रूप धारण करने वाले मूल तत्त्व परमात्मा के कतिपय भागों (मुख, बाहुओं, जांघों, पांवों आदि) से क्रम से चारों वर्गों, पृथिवी, स्वर्ग, प्राणों, दिशाभों, वायु, अग्नि, चन्द्र (मन से), सूर्य (उसकी आँखों से), आकाश तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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