________________
३३८
धर्मशास्त्र का इतिहास
पाणिनि ( ५।४।७७, ने 'निःश्रेयस' शब्द को उन पचीस शब्दों में गिना है जो अनियमित कहे जाते हैं और महाभाष्य ने इसकी व्याख्या की है 'निश्चितं श्रेयः' | कैवल्य शब्द का प्रयोग उपनिषदों में नहीं हुआ है, किन्तु 'केवल:' ( अर्थात् गुणों से रहित, शुद्ध चेतना के रूप में पृथक् ) का प्रयोग श्वे० उप० (४ । १८ एवं ६ |११ -- साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ) में हुआ है । निर्माण शब्द गीता ( ६ १५, वह योगी, जिसने मन पर अधिकार कर लिया है, और सदा योगाभ्यास करता रहता है, मुझमें अवस्थित शान्ति पाता है, वही सर्वोच्च निर्वाण है) में आया है; गीता (२।७२ एवं ५।२४-२५) में 'ब्रह्मनिर्वाणम्' आया है जिसका अर्थ है 'ब्रह्म में परमसुख '' अपवर्ग का प्रयोग केवल मंत्री उप० (६।३० ) में हुआ है और न्यायदर्शन के प्रथम सूत्र द्वारा यह लक्ष्य के रूप में निर्धारित है ।
यह द्रष्टव्य है कि विश्वविद्या, उपनिषदों में या पश्चात्कालीन ग्रन्थों में, भूकेन्द्रीय सिद्धान्त पर आधृत है और इसका अधिकांश में सम्बन्ध है -- -- सामान्य रूप में (बिना किसी विस्तृत उल्लेख के ) पृथिवी, तत्त्वों, सूर्य, चन्द्र, ग्रहों एवं नक्षत्रों से ।
मनुस्मृति में सृष्टि सम्बन्धी कई सिद्धान्त हैं । १।५-१६ में प्रथम सिद्धान्त पाया जाता है- यह विश्व अन्धकार के रूप में अवस्थित था, अज्ञात था, और था स्पष्ट संकेतों से रहित, तर्कहीन, न जानने योग्य, मानो गम्भीर निद्रा में निमग्न हो । इसके उपरान्त देव स्वयम्भू दुर्निवार शक्तियों के साथ अन्धकार को हटाते हुए तथा महान् तत्त्वों के साथ इन सभी को स्पष्ट करते हुए प्रकट हुए; वे अपनी इच्छा से ही चमक उठे; उन्होंने विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को अपने शरीर से उत्पन्न करने की इच्छा से तथा सोचने ( सृष्टि करने की भावना करने) के उपरान्त सर्वप्रथम जल की उत्पत्ति की और उसमें अपना बीज लगाया । वह बीज सोने का एक अण्डा (हिरण्यगर्भ ) बन गया, जो दीप्ति में सूर्य के समान था, और उस अण्डे में वे ब्रह्मा के रूप में उत्पन्न हुए, जो सम्पूर्ण संसार के पूर्वज रूप में थे । वे नारायण कहे जाते हैं । ३४ क्योंकि जल ( बहुवचन में प्रयुक्त ) जो नारा ( नर की सन्तानें ) कहे जाते हैं, उनके निवास का प्रथम स्थल बने । उस प्रथम कारण से, जो अभी व्यक्त नहीं था, जो न तो सत् कहा जा सकता और न असत्, एक पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसे लोग ब्रह्मा कहते हैं । उस अण्डे में वह देवी शक्ति एक वर्ष तक निवास करती रही; उन्होंने उस विषय में सोचने-विचारने के उपरान्त उस अण्डे को दो भागों में विभाजित कर दिया; इन दोनों में से उन्होंने स्वर्ग एवं पृथिवी का निर्माण किया, इन दोनों के बीच में अन्तरिक्ष, आठ दिशाएँ एवं जलों का निवास ( अर्थात् समुद्र ) बनाया । उन्होंने अपने में से मन को निकाला ( बनाया ) जो न तो सत् है और न असत् मन से अहंकार ( आत्म- चेतना) एवं
३४. आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः । ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः ॥ मनु ( १1१० ), शान्तिपर्व ( ३४२ ४० चित्रशाला संस्करण) में इसकी प्रथम अर्धाली है और दूसरी अर्धाली यों है- 'अयनं तत्पूर्वमतो नारायणो ह्ययम् ।' विष्णु पु० (१, ४।५-६ ), ब्रह्माण्ड पु० ( ११५१५ - ६ ), कूर्म पु० ( १।६।४ - ५ ) ; इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं प्रति । आपो मारा. सूनवः । अयनं तस्य ताः पूर्व.. स्मृतः ॥ यह स्पष्ट है कि दोनों पुरानों ने किसी एक ग्रन्थ से उधार लिया है, जो सम्भवतः मनुस्मृति ही है। मार्कण्डेय पु० (४४/४-५ ) में विष्णु पु० के ही श्लोक हैं, यथा-इमं चोदा० एवं आपो... सूनवः । तासु शेते स यस्माच्च तेन नारायणः स्मृतः ॥ बराह पु० (२।२५-२६) में विष्णु पु० (१।४।५ - ६ ) के समान ही पाया जाता है। ब्रह्म पु० ( ११३८-३६) में आया है : 'आपो नारा... सूनवः । अयनं तस्य ता... स्मृतः ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org