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________________ विश्व-विधा विश्व की सष्टि एवं प्रलय का वर्णन तभी सयुक्तिक कहा जायगा जब वह व्यावहारिक क्षेत्र पर आधत हो। अद्वैत वेदान्त में सत्ता के तीन प्रकार हैं, यथा-पारमार्थिकी (सर्वोच्च, परम, केवल वही), व्यावहारिको (व्यावहारिक जीवन वाली) एवं प्रातिभासिको (अवास्तव)। इनमें प्रथम (अर्थात् पारमार्थि की सत्ता) परा विद्या विषयक है जिससे यह प्रकट किया जाता है कि आत्मा का ही केवल अस्तित्व है, विश्व उसी आत्मा में निवास करता है। और इससे ऊपर किसी अन्य वस्तु की यथार्थता या सत्यता नहीं है । इस उच्च आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, वास्तव में न तो कोई स ष्टि है और न प्रलय, जीवात्मा वास्तव में बन्धन में नहीं है, अत: कोई मुक्त नहीं होता (मुक्त होने की बात ही नहीं उटती)। दूसरे प्रकार की सत्ता (अर्थात् व्यावहारिकी सत्ता) केवल व्यावहारिक है, प्रयोग-सिद्ध है; विश्व की सृष्टि एवं प्रलय के तथा जीवात्मा एवं उसके बन्धन, आवागमन एवं अन्तिम मुक्ति के सिद्धान्त केवल अपरा विद्या के लिए युक्तिसंगत (अथवा सयुक्तिक) हैं। अधिकांश धर्म तीन प्रकार की सत्ताओं की परिकल्पना करते है, यथा-ईश्वर, जीवात्मा एवं बाह्य संसार । ये तीनों सत्य हैं किन्तु एक निश्चित सीमा तक ही (केवल तभी तक, जब तक व्यक्ति अहंकारवश अपनी सत्ता स्वीकार करता है), किन्तु ये तीनों अन्तिम सत्ता के द्योतक नहीं हैं। किन्तु इस निम्न स्तर वाली सत्ता में भी वह व्यक्ति जो गम्भीर निद्रा में रहता है ( कुछ देर के लिए) सत्य सत्ता में लीन हो जाता है, जैसा छा० उप० (६।८।१, यत्रतत् पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति) में कहा गया है। तीसरी सत्ता (प्रातिभासिकी सत्ता) स्वप्न की अवस्था की द्योतक है। स्वप्न में सुख, दुःख एवं दुर्दशा की अनुमति होती है और इन मानसिक स्थितियों का सम्बन्ध स्वप्न में दिखाई पड़ने वाले दृश्यों से होता है, जो स्वप्न के चलते समय तक वास्तविक लगते हैं, किन्तु जब व्यक्ति जग जाता है तो ये सभी दृश्य अदृश्य हो जाते हैं । विश्व की सृष्टि के वर्णनों में केवल यही बात पायी जाती है कि कारण एवं कार्य में कोई भेद नहीं है और वे सभी ब्रह्म के विषय में सच्चा ज्ञान कराते हैं । शंकराचार्य ने यही तर्क अन्य आत्माओं के विषय में भी दिया है (वे० सू० २।३।३०) जिसे हम आगे के अध्याय में उद्धत करेंगे। उपनिषदों में जो सृष्ट अथवा रचित है उसके विषय में तथा सृष्ट वस्तुओ के क्रम के विषय में स्पष्ट विरोध पाया जाता है । २४ बृ० उप० (५।५१) में आया है-'आरम्भ में केवल जल थे; जलों ने सत्य की रचना की, जो ब्रह्म है, ब्रह्म ने प्रजापति को बनाया, जिसने देवों की सृष्टि की।' छा० उप० (६।२।३) में प्रथम सृष्टि (रचना) के रूप में जो स्पष्ट रूप से उल्लिखित है, वह है तेज और आकाश का तो कोई उल्लेख ही नहीं है। किन्तु ते० २४. यह द्रष्टव्य है कि उपनिषदों में विश्व-उत्पत्ति-सम्बन्धी धारणा बहुत प्राचीन है, उसके लिए कोई निश्चित तिथि नहीं दी जा सकती, जैसा कि बाइबिल-सम्बन्धी शास्त्रीय तिथि-क्रम निर्धारित किया गया है (४००४ ई० पू०) । देखिए प्रिगिल-पटिसन कृत 'आइडिया आव गॉड' (१६१७ का संस्करण, पृ० २६८) । एच० डी० ऍथॉनी कृत 'साइंस एण्ड इट्स बैकग्राउण्ड (मैकमिलन, १६४८, पृ० २) में आया है कि आर्माघ के प्रधान पादरी जेम्स उश्शर ने १७वीं शती में 'एंग्लिकन चर्च' में ई० पू० ४००४ नामक वर्ष निश्चित किया, अर्थात् सष्टि ई० पू० ४००४ वर्ष पहले हुई। मध्यकालीन ईसाई सिद्धान्त यह है कि सृष्टि केवल ईश्वर के अस्तित्व में एक घटना मात्र है और मानव ईश्वर की प्रतिमूर्ति के अनुरूप ही बना है और ईश्वर की साँस से ही मानव जीवित प्राणी बना (जेनेसिस ११२७ एवं २७)। मनुष्य के विषय में ईसाई एवं वेदान्त-सिद्धान्तों में एक अन्य महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहाँ ईसाई सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य का गर्भाधान एवं जन्म पाप की दशा में होता है, वहीं वेदान्त के अनसार मानव आत्मा दिव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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