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________________ तर्क एवं धर्मशास्त्र ३०६ या ग्राम-मन्दिर को दण्ड रूप में कुछ देना होता था, तब कहीं उसे अपनी जाति की सुविधाएँ प्राप्त हो सकती थीं । ईसाइयों के चर्चे थोड़ी-सी भी मार्ग भ्रष्टता के प्रति बहुत ही असहिष्णु रहे हैं (विशेषत: धार्मिक विषयों एवं विशिष्ट कालों में) अतः यूरोप में अपने मतों के प्रति दुराग्रह प्रकट करने की प्रवृत्ति एवं बुद्धिवाद पर विशेष बल दिया गया । सरकारों ने प्रभावपूर्ण ढंग से शिक्षा पर नियन्त्रण करके अपनी प्रजा के मतों को जिधर चाहा घुमाया, ऐसा करने में उन्होंने ग्रन्थों पर अधिकार किया और उन लोगों को यातनाएँ दीं जिन्होंने उनकी मान्यताओं के विरुद्ध मत व्यक्त किये | रोम के चर्च ने ऐसी अनभीष्ट पुस्तकों की सूची बनवायी जो वर्जित थीं, तथा एक सूची बनवायी जिसमें अभीष्ट ग्रन्थों के वे वचन संगृहीत थे जो वर्जित टहरा दिये गये थे । इस विषय में पाश्चात्य धार्मिक इतिहास बड़ा क्रूर एवं कठोर चित्र उपस्थित करता है । देखिए लेकी का ग्रन्थ 'हिस्ट्री आव दि राइज़ एण्ड इंफ्लुएंस आव रेशनलिज्म इन यूरोप', आर्चीबाल्ड राबर्टसन कृत 'रेशनलिज्म इन थ्योरी एण्ड प्रैक्टिस' ( वाट्स एण्ड को० द्वारा प्रकाशित, १६५४ ) एवं ह्यू टी० ऐंसन फॉसेट कृत 'दि फ्लेम एण्ड लाइट' ( लन्दन, १६५८ ) । इन ग्रन्थों में ऐसी बातों का पूर्ण विवेचन है । लेकी ने बताया है कि किस प्रकार जापान से ईसाई धर्म, स्पेन से प्रोटेस्टेण्टवाद, फ्रांस से हूजेनॉट्स तथा इंग्लैण्ड से अधिकांश कैथोलिकों का मूलोच्छेद हो गया । जेसुइटों ने इस सिद्धान्त का कार्यान्वयन किया कि ध्येय के अनुसार ही साधन चलते हैं । उनका ध्येय था 'ईश्वर का महत्तर गौरव' जिसका उनके लिए अर्थ था रोमन कैथोलिकवाद के अनुसार मनुष्यों एवं राज्यों का धार्मिक परिवर्तन, साधन थे मारकाट एवं युद्ध के लिए निजधर्मावलम्बियों को उभारना । गैलिलिओ को ज्योतिष में कोपर्निकस के सिद्धान्त के अनुसरण के कारण यातना दी गयी। सूर्य पृथिवी के चतुर्दिक घूमता है या पृथिवी सूर्य के इससे धर्म के लिए विशेष अन्तर नहीं होता । इसी विषय में एक बात यह बता दी जाय कि भारत में 'आर्यभट ( सन् ४७६ ई० में जन्म) ने यह घोषित किया कि नक्षत्र पृथिवी के चतुर्दिक् चक्कर नहीं 'काटते प्रत्युत पृथिवी ही अपने चारों ओर घूमती है और इसे समझाने के लिए एक चलती हुई नाव में बैठे हुए पुरुष का उदाहरण दिया, जिसे ऐसा भास होता है कि तट पर स्थित पदार्थ ही पीछे की ओर दौड़ते दृष्टिगोचर होते हैं। वराहमिहिर की पञ्चसिद्धान्तिका ( १३१६ ) में इस मत का उल्लेख है और इसे त्याग दिया गया है, किन्तु इसलिए नहीं कि यह वेदविरुद्ध है, प्रत्युत इस तर्क पर कि यदि यह मत ठीक होता तो चील आदि पक्षी, जो आकाश में इतनी दूर उड़ते रहते हैं, अपने घोंसलों में पुन: सफलतापूर्वक नहीं आ सकते थे । उन्हें यह नहीं ज्ञात था कि पृथिवी के साथ वायुमण्डल भी चलता रहता है । यह बात गॅलिलिओ से ११०० वर्ष पहले की है और हमारे पास कोई ऐसा प्रमाण नहीं है कि आर्यभट को अपने मतों के कारण कोई पीड़ा उठानी पड़ी । देखिए डब्लू० ई० क्लार्क कृत 'आर्यभटीयम्' ( चिकागो, १६३०), पृ० ६४ । जैसा कि आर्चीबाल्ड रॉबर्टसन ने अपने ग्रन्थ में लिखा है, यूरोप में तार्किक ( अथवा बौद्धिक ) क्रान्ति का इतिहास बहुत बड़ी सीमा तक उन मतों के मानने एवं उन्हें प्रसारित करने के अधिकार के युद्ध का इतिहास है, जो कुछ कालावधि तक अप्रचलित रहे हैं, और यूरोप में धार्मिक सहिष्णुता की भावना का विकास परम्परागत धार्मिक विश्वासों के नाश के साथ-साथ चलता रहा है। एक ही विषय पर तर्क कई युगों में कई प्रकार के निष्कर्षो को उपस्थित करता है और कभी-कभी एक ही युग में जो किसी एक दल विशेष को तर्कयुक्त लगता है, अन्य दल के लोगों को ६. अनुलोमगतिनौ स्थः पश्यत्यचलं विलोमागं यद्वत् । अचलानि भान्ति तद्वत्समपश्चिमगानि लंकायाम् ॥ आर्मभटीय ( गोलपाद, श्लोक ६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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