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तर्क एवं धर्मशास्त्र
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तुम्हें शृंखलाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं खोना है।" कुछ अन्य ध्यानाकर्षक शब्द ये हैं-"कृषक-श्रमिकों की अधिनायकता या अनन्य शासन।" किन्तु वास्तव में, यह तानाशाही कृषक-श्रमिकों पर साम्यवादी दल की तानाशाही के रूप में परिणत होती है। भौतिक कल्याण प्राप्ति के बदले में सामान्य जनता अपनी कई स्वतन्त्रताओं का विनिमय करती है (अर्थात् भौतिक कल्याण की वेदी पर कई स्वतन्त्रताओं की आहुतियाँ देती है), यथा-- अपने विषय में सोचने की स्वतन्त्रता, बोलने की स्वतन्त्रता, बाह्य देशों के लोगों से मिलने-जुलने की स्वतन्त्रता, अपनी जीवन-वृत्तियों (पेशों) के चुनाव की स्वतन्त्रता आदि। इस विषय में साम्यवादी लोग कुछ भी गुप्त नहीं रखते कि वे सम्पूर्ण विश्व को साम्यवाद के अन्तर्गत लाना चाहते हैं। अतएव वे उद्घोषणा करते हैं कि वे सम्पूर्ण संसार के सामान्य नरों एवं नारियों के त्राता या उद्धारक हैं, और उन्हें कोई आक्रान्त नहीं कर सकता, क्योंकि वे पूंजीवाद या उपनिवेशवाद आदि के बन्धन से लोगों को मुक्त करना चाहते हैं। उनके मत में उन्मत्तता, असहिष्णुता या अन्य के प्रति विद्वेष की भावना पायी जाती है। ईश्वर विहीन समाज के विषय में एक मात्र प्रयोग विशाल पैमाने पर रूस में हुआ है, किन्तु यह बाह्य लोगों की दृष्टि में सुखद एवं सफल नहीं सिद्ध हुआ है। सोवियत रूस के बड़े-बड़े नेताओं (जिनमें कुछ को उनके उत्तराधिकारियों ने हत्यारे की उपाधि दी है) के चित्रों का सार्वभौम प्रदर्शन स्पष्ट रूप से ईश्वरविहीन समाज में भी पूजा की आवश्यकता की उद्घोषणा करता है । तानाशाहों ने न केवल सम्पत्ति की उत्पत्ति के साधनों का राष्ट्रीयकरण किया है, प्रत्युत देश के सम्पूर्ण 'श्रम' (लेबर) के साथ ऐसा किया है। तानाशाहों ने अपने को ईश्वर के स्थान पर प्रतिष्ठापित किया है और अपने प्रजाजनों के शरीरों एवं मनों पर भी पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करना चाहा है। रूसी साम्यवादियों का ऐसा विश्वास है कि उनका देश इस पृथिवी पर स्वर्ग है और उनका कहना है कि लोगों को उनके शब्दों को, बिना जाँच-पड़ताल किये तथा वस्तुस्थिति का स्वयं परिचय प्राप्त किय, ज्यों-का-त्यों अवश्य मान लेना चाहिए। साम्यवादियों की इतिहास, अर्थशास्त्र एवं विज्ञान-सम्बन्धी विचारधाराएँ उनकी अपनी हैं। किसी को इस विषय में किसी प्रकार का प्रश्न उठाने का अधिकार नहीं है।
जूडावाद (यहूदियों का धर्म), ईसाई धर्म एवं इस्लाम (सभी एक ईश्वर में एवं एक ग्रन्थ में विश्वास करते हैं) के अनुयायियों ने अपने सिद्धान्तों एवं आचारों को फैलाने के लिए शतियों तक रक्तरञ्जित युद्धों एवं हत्याओं का आश्रय लेने में किसी प्रकार की हिचक नहीं प्रदर्शित की। जो लोग हिन्दू धर्म एवं बौद्ध धर्म की परम्पराओं में पले हुए हैं उनकी दृष्टि में यह व्यवहार अथवा इस प्रकार का धार्मिक आवेश आकस्मिक क्षोभ उत्पन्न करने वाला है। यदि बुद्धिवादी अथवा अनीश्वरवादी लोग ईश्वर-पूजा के स्थान पर मानव-समाज के दल स्थापित करते हैं या पूजा एवं शासन के लिए ऐसे दलों के नेताओं को प्रतिष्ठापित करते हैं तो इसमें सन्देह नहीं कि स्वयं मानवता ही विलुप्त हो जायगी। यह मानते हुए भी कि तथाकथित बुद्धिवादियों को हम सर्वशक्तिमान् एवं सर्वज्ञ ईश्वर के अस्तिव को सिद्ध करने के विषय में सन्तुष्ट नहीं कर सकते, प्रस्तुत लेखक ऐसा अनुभव करता है कि अधिकांश समाजों के लिए, जिनमें करोड़ों-करोड़ मानव रहते हैं, ईश्वर एवं आत्मा में विश्वास करना, अपेक्षाकृत अच्छा है। अधिकांश लोग ईश्वर के भय से सदाचार एवं अच्छाइयों की ओर झुकते हैं, क्योंकि उनका अन्त:करण उन्हें कोसता रहता है, उन्हें लोक-लज्जा रहती है और उन्हें राज्य के राजा से दण्ड मिलने का भय लगा रहता है। जो लोग ईश्वर-भय, सदाचार का पथ एवं दूसरी बात अर्थात् अन्तःकरण (ईश्वर द्वारा मनुष्य में डाली हुई आन्तरिक शक्ति) की बात छोड़ देते हैं , उन्हें तीसरा (अर्थात् लोक-लज्जा का भाव) भी छोड़ देना होता है और इस प्रकार वे सुखवादी (अपने ही लिए सबसे अधिक सुख की भावना-हेडोनिज्म) हो उटते हैं। ऐसे लोग 'अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक लाभ हो' वाले सिद्धान्त या कल्पना द्वारा किसी आदर्श समाज के विषय में
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