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धर्मशास्त्र का इतिहास है-'जो व्यक्ति शुद्ध धर्म जानना चाहता है उसे इन तीनों का अवश्य ज्ञान होना चाहिए-प्रत्यक्ष, अनुमान एवं विभिन्न परम्पराओं पर आधृत शास्त्र; केवल वही व्यक्ति धर्म जानता है जो आर्ष वचन (अर्थात् मुनियों के वचन या वेद), (स्मृतियों में वर्णित) धर्मोपदेश को उस तर्क के साथ विचारता है जो वेद एवं शास्त्रों के विरोध में नहीं पड़ता है (१२।१०५)।' संस्कृत के अधिकांश कट्टर लेखकों का तर्क के विषय में यही कथन है । यदि कोई केवल तर्क पर ही निर्भर रहे तो परिणाम अनिश्चित एवं विप्लवकारी होगा। प्रत्येक सिद्धान्तवादी यही कहता है कि उसका सिद्धान्त तर्क पर आधत है, किन्तु सामान्य लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के विषय में तर्क पर आधत उत्तर विभिन्न प्रकार से व्यामोह में डालने वाले होते हैं। विभिन्न वातावरणों में पले हुए विभिन्न अनुभवों वाले विचारक विभिन्न तर्क रखते हैं और यहाँ तक कि विभिन्न नैतिक विधानों का उद्घोष कर डालते हैं। सामान्य व्यक्ति किसका अनुसरण करे ? वेद एवं स्मृतियाँ सहस्र वर्षों से चले आये हुए, महान् एवं स्वार्थरहित मुनियों द्वारा अनुभूत एवं निर्णीत तथा जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित आचरण सम्बन्धी सिद्धान्तों से परिपूर्ण हैं, अर्थात् उनमें बहुत-से विज्ञ लोगों के अनुभव एवं तर्क पाये जाते हैं। अत: यदि आज कोई व्यक्ति यह कहता है कि तर्क के आधार पर वह वेद-विरोधी मत रखता है तो अधिकांश लोग उस अकेले एक व्यक्ति की बातें, जो कतिपय प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रकाशित मतों के विरोध में पड़ती हैं, मानने को किसी प्रकार सन्नद्ध नहीं हो सकते। इस बात को और बढ़ाकर कहने की आवश्यकता नहीं है। बहुत-से ऐसे प्रश्नों के विषय में, यथा-क्या परमात्मा का अस्तित्व है, क्या कोई परम बुद्धि है जो इस विश्व का निर्देशन कर रही है, क्या आत्मा का अस्तित्व है, मर जाने के उपरान्त मनुष्य का भविष्य क्या है ; अति विज्ञ लोगों ने अति विभिन्न उत्तर दिये हैं। इन प्रश्नों के ऐसे उत्तर जो सबको या अधिकांश लोगों को स्वीकार्य हों, केवल तर्क से ही नहीं दिये जा सकते। यद्यपि यही शास्त्रसम्मत स्थिति है, किन्तु समय-समय पर वैदिक आचार जनमत के कारण त्याग दिये गये हैं। स्वयं स्मतिकारों ने ऐसी व्यवस्था दी है कि शास्त्रीय वचनों के अन्धानुकरण से धर्म की हानि होती है और जब स्मृतियों की व्यवस्थाओं में विरोध उपस्थित हो जाय तो तर्क का आश्रय लेना चाहिए तथा लोकमत एवं लोकाचारों पर विचार करना चाहिए। इस विषय में देखिए इस खण्ड का अध्याय २६ एवं इस महाग्रन्थ के मूल खण्ड ३ के पृ० ८६६-८६८ । महाभारत में आया है-- 'अचिन्त्य विषयों के समाधान में तर्क का सहारा नहीं लेना चाहिए।' भूख से पीड़ित मुनि विश्वामित्र (जो एक कुत्ते की पूंछ खाना चाहते थे) एवं चाण्डाल के बीच हुई वार्ता के सिलसिले में महाभारत में आया है---'अत: धर्म एवं अधर्म के विषय में विज्ञ व्यक्ति को, जिसका आत्मा पवित्र हो, अपनी बुद्धि पर आश्रय लेकर कार्य करना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं समझना चाहिए कि शंकराचार्य एवं अन्य महान भारतीय लेखकों ने तर्क का आश्रय लेना सर्वथा छोड़ दिया था। उनके कहने का तात्पर्य इतना ही है कि यदि निष्कर्ष सीधे वेद एवं स्मृति-वचनों के विरोध में पड़ते हों तो केवल एक या दो व्यक्तियों के तर्क का अनसरण नहीं करना चाहिए। शंकराचार्य ने अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से व्यक्त कर दी है (वे० स० २।१।१ एवं ११) । जैनों एवं बौद्धों के विश्वास धर्मविरुद्ध थे, क्योंकि वे वेद तथा अन्य पवित्र परम्पराओं की प्रामाणिकता स्वीकार नहीं करते थे, यद्यपि वे हिन्दू
३. ई० पी० मार्गन ने 'दिस आई बिलीव' (लन्दन १६५३) के ५० ६० में पिशेल का एक वचन उद्धत किया है-'हृदय के अपने तर्क हैं जिन्हें तर्क नहीं समझ पाता।'
४. अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत् । प्रकृतिभ्यः परं यच्च तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ॥ भीष्मपर्व (शंकराचार्य, वे० सू० २।१।६, स्मृति के रूप में उद्धृत) । यह मत्स्यपुराण (११३।६), पपपुराण (आदि ३३१२), ब्रह्माण्ड० (२।१३।७-८) में भी आया है। 'प्रकृति' का अर्थ है भौतिक कारण ।
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