SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ धर्मशास्त्र का इतिहास बृहद्योगियाज्ञवल्क्य एवं वाचस्पति ने इनका उल्लेख किया है। विष्णुपुराण (५।१०।१४) न शरद् ऋतु के काव्यात्मक वर्णन में श्लेष के रूप में इनका उल्लेख किया है। प्राणायाम करने के विभिन्न ढंग बतलाये गये हैं। सरल ढंगों में एक यह है-अंगठे से दाहिना नासिका-छिद्र बन्द कर लें, बायें नासिका-छिद्र से अपनी शक्ति भर सांस खींच लें; इसके उपरान्त दाहिने नासिका-छिद्र से सांस बाहर फेंके; पूनः दाहिने नासिका-छिद्र से सांस लें और बायें नासिका-छिद्र से सांस बाहर फेंके। इसे कम-से-कम तीन बार करें। इसे प्रतिदिन दो बार अभ्यास में विशेषत: प्रातःकाल स्नान करने के उपरान्त या सन्ध्याकाल या चार बार (सूर्योदय के पूर्व, मध्याह्न के समय, सन्ध्याकाल और अर्धरात्रि में) । आरम्भ में कुम्भक नहीं करना चाहिए। पूरक एवं रेचक में कुछ अभ्यास हो जाने के उपरान्त कुम्भक को रेचक के पश्चात् करना चाहिए। पूरक के उपरान्त कुम्भक का अभ्यास बड़ी सावधानी से करना चाहिए और किसी दक्ष गुरु के निर्देशन में ही ऐसा करना चाहिए। ___ मनुस्मृति में प्राणायाम की महत्ता गायी गयी है-'एक ब्राह्मण के लिए नियमों के अनुसार एवं व्याहृतियों तथा प्रणव के साथ किये गये तीन प्राणायाम परम तप के समान हैं। जिस प्रकार धातुओं के गलाने से उनके मल जल जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों के दोष प्राण (वायु) के निग्रह से मिट जाते हैं । व्यक्ति को प्राणायामों द्वारा दोषों को, धारणा द्वारा पापों को मिटाना चाहिए तथा प्रत्याहार द्वारा संसर्गों को दूर करना चाहिए तथा क्रोध, लोभ, ईर्ष्या आदि दोषों को (ब्रह्म का) ध्यान करके मिटाना चाहिए' (मनुस्मृति ६७०-७२) । और देखिए बृहद्योगियाज्ञ० (८।२६, ३०, ३२), शंखस्मृति (७॥१३), वायुपुराण (१०।६३), भागवत० (३।२८), मार्कण्डेयपु० (३६।१०) । योगसूत्र (२।५२-५३) में आया है कि प्राणायाम के अभ्यास से प्रकाश के आवरण (अर्थात् क्लेश) क्षय को प्राप्त होते हैं और योगी का मन धारणा करने के योग्य हो जाता है (तत: क्षीयते प्रकाशावरणम् । हननम् । विभिन्न लेखकों ने विभिन्न ढंगों से इस शब्द की व्याख्या की है। देखिए योगमीमांसा (खण्ड २, भाग ३, १० २२५-२३४) । कभी-कभी पूरक, रेचक एवं कुम्भक को तीन प्राणायाम भी कहा जाता है, और कभी-कभी इन तीनों को मिलाकर एक प्राणायाम कहा गया है। इनमें प्रत्येक पुनः मदु, मन्द (या मध्यम) एवं तीव्र कहा गया है । देखिए बृहद्योगियाज्ञवल्वय (८७)-'त्रिविधं केचिदिच्छन्ति तथा च नवधा परे। मृदु मध्याधिमात्रत्यादेटककं त्रिविधं भवेत् ॥' देखिए विष्णुधर्मोत्तर (३।२८०११)-रेचकं पूरकं चैव कुम्भकं च तथा द्विजाः । एकस्यवस्थो विज्ञेयः प्राणायामो महाफलः॥ रेचक-पूरक-कुम्भकेष्वस्ति श्वासप्रश्वासयोगतिविच्छेच इति प्राणायामसामान्यलक्षणमेतदिति । तथाहि । यत्र बाह्यो वायुराचम्यान्तर्धार्यते पूरके तत्रास्ति श्वास-प्रश्वासयोगतिविच्छेदः। यत्रापि कोष्ठप वायुविरेच्य बहि यंते तत्रास्ति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः । एवं कुम्भकेपोति । वाचस्पति (योगसूत्र २०५० पर); पूरक : कुम्भकश्चवरेचकस्तदनन्तरम् । प्राणायामरित्रधा ज्ञेयः कनीयो मध्यमोत्तमः॥ पूरकः कुम्भको रेच्यः प्राणायाम स्त्रिलक्षणः । ग्रहयोगियान० (८६१०)। कुम्भक का नाम इसलिए पड़ा है क्योंकि इसमें मलपूर्ण कुम्भ (घड़ा) से समानता है (जल कुम्भ में स्थिर रहता है)। राजमार्तण्ड में व्याख्या है 'तस्मिञ्जलमिव कुम्भ निश्चलतया प्राणा अवस्थाप्यन्ते इति कुम्भकः ।' देखिए पाणिनि (५॥३॥६७), 'प्रतिकृतौ च', इवा कन् स्यात् समुदायेन चेत्संज्ञा गम्यते । अतः कुम्भक का अर्थ है 'कुम्भ इव कुम्भकः, कुम्भसवृशस्य संज्ञा ।' ६३. प्राणायाम इवाम्भोभिः सरसां कृतपूरकः । मभ्यस्यतेऽनु दिवसं रेचकाकुम्भकादिभिः॥ विष्णुपु० (५॥ २०१४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy