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________________ योग एवं धर्मशास्त्र को एकविध एवं शान्तिपूर्वक होना चाहिए, और पूरक में रेचक का आधा काल (समय) लगना चाहिए। पूरक, रेचक एवं कम्भक की अवधि के विषय में तीन मत हैं. यथा-१:४:२ या १:२:२ के अनपात में या तीनों में समान । पुराणों ने प्राणायाम के लिए विभिन्न मात्राएँ निर्धारित की हैं, यथा-मार्कण्डेय (३६।१३, १४) में आया है कि लघु (भाष्य में मृदु) में १२ मात्राएँ हैं. मध्यम में इसकी दूनी तथा उत्तरीय (भाष्य में तीव्र) में १२ मात्राओं का तिगुना । गरुडपुराण (११२२६।१४-१५) ने क्रम से १०, २०, ३० मात्राएं निर्धारित की हैं और कूर्मपुराण ने मार्कण्डेय की बात मान ली है । मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२००-२०१) ने व्यवस्था दी है कि प्राणायाम की तीन कोटियां हैं-अधम (१५ मात्राएँ), मध्यम (३० मात्राएं) एवं उत्तम (४५ मात्राएँ)। लिंगपुराण (१२८१ ४७-४८) ने नीच उद्घात, मध्यम उद्घात एवं मुख्य के लिए क्रम से १२, २४ एवं ३६ मात्राओं का काल माना है और कहा है कि तीनों का स्पष्ट परिणाम है क्रम से प्रस्वेद आना , कम्पन होना एवं उत्थान होना (प्रसादकम्पनोत्थानजनकश्च यथाक्रमम्) । मिलाइए मार्कण्डेय० (३६।१६) जिसमें आया है कि इनमें प्राणायाम की विभिन्न मात्राओ के अनुसार क्रम से प्रवीणता प्राप्त करनी चाहिए (प्रथमेन जयेत् स्वेदं मध्यमेन च वेपथुम् । विषादं हि तृतीयेन जयघोषान् अनुक्रमात् ॥) यह द्रष्टव्य है कि पतञ्जलि एवं व्यासभाष्य ने पूरक, रेचक एवं कुम्भक नामक विख्यात शब्दों का प्रयोग नहीं किया है, प्रत्युत श्वास, प्रश्वास एवं गतिविच्छेद शब्दों का प्रयोग किया है।' इतना ही नहीं, पत जलि एवं व्यास ने प्राणायाम में ओम्, गायत्री या व्याहृतियों के जप के विषय में कुछ नहीं कहा है, जैसा कि स्मृतियों एवं पश्चात्कालीन या मध्यकालीन ग्रन्थों में पाया जाता है। एक तीसरी बात पर विचार करना है कि कुछ अन्य पश्चात्कालीन ग्रन्थों में रेचक, पूरक एवं कुम्भक को प्राणायाम के तीन प्रकारों में गिना गया है और योगसूत्र में प्राणायाम के चार प्रकार हैं जिनमें तीन की व्याख्या योगसूत्र २१५० में तथा चौथे की २१५१ में हुई है। 'रेचक', 'पूरक' एवं 'कुंभक' शब्दों को पर्याप्त प्राचीन माना जाना चाहिए । इनका उल्लेख एवं परिभाषा देवलधर्मसत्र में है, जैसा कि शंकराचार्य का कथन है (देखिए गत अध्याय २१ की प्रथम पाद-टिप्पणी)।१२ ६१. तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः । बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः । बाह्यान्यन्तरविषयापेक्षी चतुर्थः। यो० सू० (२१४६-५१); सत्यासनजये बाह्यस्य वायोराचमनं श्वासः कोष्ठस्य वायोनिःसारणं प्रश्वासः तयोर्गतिविच्छेदः उभयाभावः प्राणायामः । भाष्य (२४६ पर)। 'वृत्ति' शब्द का सम्बन्ध बाहा, आभ्यन्तर एवं स्तम्भ से होना चाहिए । यहाँ पर कुम्भक, जो रेचक के उपरान्त होता है, बाह्यत्ति है और वह जो पूरक के उपरान्त होता है, आभ्यन्तरवृत्ति कहलाता है । जब न तो रेचक होता है और न पूरक तब स्तम्भवृत्ति कहलाती है । देखिए श्री कुवलयानन्द कृत योगमीमांसा (खण्ड ६, पृ० ४४-५४, १२९-१४५, २२५-२५७) । ६२. देवल । त्रिविधः प्राणायामः । कुम्भो रेचनं पूरणमिति । निश्वासनिरोधः कुम्भः । अजननिःश्वासो रेचनम् । निश्वासाध्मानं पूरणमिति । स पुनरकद्वित्रिभिरुद्वातः (उद्घातः) मृदुमन्दस्तीक्ष्णो वा भवति । प्राणापानव्यानोदानसमानानां सकृदुद्गमनं मूर्धानमा हत्य निवृत्तिश्चोद्वातः ( रातः)। कृत्यकल्प० ( मोक्षकाण्ड, ५० १७०) एवं अपरार्क (पृ० १०२३) । मिलाइए व्यासभाष्य 'संख्याभिः परिदृष्टा एतावद्भिः श्वासप्रश्वासः प्रथम उद्घातस्तंह निगृहीतस्पतावद्भिद्वितीय उद्घातः । एवं तृतीयः । एवंमदुरवं मध्य एवं तीव्र इति संख्यापरिदृष्टः । योगसूत्र (२०५०) पर। राजमार्तण्ड में व्याख्या की गयी है : 'उद्घातो माम माभिमूलात्प्रेरितस्य वायोः शिरस्यभि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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