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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २६३ प्राप्त करने के साधन हैं अभ्यास एवं वैराग्य (जो एक साथ किये जाते हैं); अभ्यास वह यत्न है जिसके द्वारा वृत्तियों पर नियन्त्रण करके मन को दीर्घकाल के लिए निरन्तर एवं इच्छापूर्वक शान्तिमय प्रवाह दिया जाता है और दूसरा वैराग्य है जो देखे हुए पदार्थों (यथा नारी, भोजन, पेय, उच्च पद आदि) पर स्वामित्व-स्थापन की चेतना (अर्थात् उनकी तृष्णा से छुटकारा पाना) तथा उन पदार्थों (यथा-स्वर्ग, वैदेह्य, प्रकृतिलयत्व आदि) से विरक्ति की भावना है ।३० वैराग्य के दो प्रकार हैं-अपर (यो० सू० १।१५) एवं पर (यो० सू० १।६)। पर अर्थात् उच्च कोटि के वैराग्य में योगी (जो स्व एवं गुणों के भेद को जानता है) न केवल इन्द्रिय-पदार्थों से उत्पन्न तृष्णा से मुक्त होता, प्रत्युत वह गुणों से भी मुक्त हो जाता है और उस बाधारहित चेतना के स्तर को प्राप्त करता है जो योगी को यह अनुभूति देता है कि जो प्राप्त करना था मैंने उसे प्राप्त कर लिया है, जिन्हें नष्ट करना था उन क्लेशों (अविद्या आदि) को मैंने नष्ट कर दिया है, जन्मों एवं मरणों की श्रृंखला काट डाली है । भाष्य में आया है-'ज्ञान की पराकाष्ठा वैराग्य है और इससे अपृथक् रूप से कैवल्य सम्बन्धित है' (ज्ञानस्य पराकाष्ठा वैराग्यम् । एतस्यैव हि नान्तरीयकं कैवल्यमिति) । वाचस्पति का कथन है कि इस अन्तिम को ‘धर्ममेधसमाधि (यो० सू० ४।२६) कहा जाता है । प्रथम पाद के सूत्र १७ एवं १८ सम्प्रज्ञात समाधि (सचेत ध्यान) या सालम्बनसमाधि, असम्प्रज्ञात समाधि (वह ध्यान, जिसमें स्थूल एवं सूक्ष्म पदार्थों की चेतना न हो) का उल्लेख करते हैं । इनमें प्रथम के चार प्रकार हैं, यथा-सवितकं (शालग्राम या चतुर्भुज भगवान् आदि स्थूल वस्तु पर ध्यान जमाना या उसकी अनुभूति करना), सविचार (जिसमें सूक्ष्म पदार्थो, यथा तन्मात्राओं आदि का विचार हो), सानन्द (जिसमें सत्त्व से पूर्ण मन का विचार हो, इसे आनन्द की समाधि कहा जाता है) एवं सास्मितारूप (जिसमें केवल व्यक्तिता का ही ज्ञान हो , अर्थात् जिसमें ज्ञाता ही प्रत्यक्ष का पदार्थ होता है)।३१ इन चार प्रकारों से आदि) पर स्वामित्व-स्थापन करना होता है उसी प्रकार योगी को समाधि-प्राप्ति में बाधा के रूप में निद्रा पर भी नियन्त्रण करना होता है। ३०. अभ्यासवैराग्याभ्यां तनिरोधः । तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः। स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः । दृष्टानुभविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् । तत्परं पुरुषस्यातेर्गुणवतृष्ण्यम् । योगसूत्र (१॥ १२-१६) । १।१५ पर भाष्य का कथन है-'स्त्रियोन्नपानमैश्वर्यमिति दृष्टविषये विरक्तस्य स्वर्गवैदेह्यप्रकृतिलयत्वप्राप्तावानुश्रविकवितृष्णस्य दिव्यादिव्यविषयसंप्रयोगेऽपि चित्तस्य विषयदोषदर्शिनः प्रसंख्यातबलादनाभोगात्मिका हेयोपादेयशून्या वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ।' वाचस्पति ने व्याख्या की है-'अनुश्रवो वेदस्ततोऽधिगता आनुश्रविकाः स्वर्गादयः । ... न वैतृष्ण्यमानं वैराग्यम् अपि तु दिव्यादिव्यविषयसंप्रयोगेऽपि चित्तस्यानाभोगात्मिका । 'दृष्ट' एवं 'आनुश्रविक' शब्दों के लिए देखिए सां० का० (२)-दृष्टवदानुश्रविकः स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः। तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तजविज्ञानात् ॥ भाष्य का ११६ पर यह कथन है--'तद्वयं वैराग्यम् । तत्र यदुत्तरं तज्ज्ञानप्रसादमात्रम् । ... ज्ञानस्यैव पराकाष्ठा वैराग्यम्। एतस्यैव हि नान्तरीयकं कैवल्यमिति ।' वैराग्य के दूसरे प्रकार में केवल अबाधित एवं शान्तिमय चेतना का ज्ञान (किसी भी प्रकार के पदार्थ से असम्बद्ध) पाया जाता है और उसके साथ कैवल्य (जो योग का लक्ष्य है) अविभक्त रूप से सम्बन्धित रहता है। ३१. वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् संप्रज्ञातः । विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः। योगसूत्र (१॥ १७-१८)। इन दोनों को सबीज एवं निर्बोज या सालम्बन एवं निरालम्बन या सविकल्प एवं निर्विकल्प समाधि कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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