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धर्मशास्त्र का इतिहास यों पढ़ा है२७ 'सर्वार्थतकार्थयोः . . .'। उनके अनुसार भूमियाँ ६ हैं, और छठी भूमि है 'एकार्थ'। इस बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना है। आश्चर्य तो यह है कि इस कठिनाई पर योगसूत्र के भाष्यकार व्यास ने भी ध्यान नहीं दिया । अत: निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सावधानी की परम आवश्यकता है। इस सूत्र ने योग के लक्ष्य का उल्लेख किया है, अर्थात् आत्मा, जो द्रष्टा है, तब (जब कि चित्त की वृत्तियाँ नियन्त्रित रहती हैं) अपने रूप में अवस्थित होता है, जव कि सामान्य जीवन में आत्मा चित्त की चञ्चलताओं के रूपों में प्रकट होता है । वृत्तियाँ पाँच हैं२८, जिनमें कुछ क्लेश नामक बाधाओं से अभिभूत रहती हैं और कुछ इस प्रकार बाधित या अभिभूत नहीं होतीं । जो बाधित होती हैं , उन पर स्वामित्व स्थापित करना होता है या उन्हें हटाना होता है और अन्य वृत्तियों को, जो इस प्रकार बाधित या अभिभूत नहीं रहतीं, स्वीकार करना होता है । पाँच वृत्तियाँ इस प्रकार हैं--प्रमाण (शुद्ध ज्ञान के साधन), विपर्यय (त्रुटिपूर्ण धारणाएँ), विकल्प, निद्रा२९ एवं स्मृति । प्रमाण तीन हैं--प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम (शाब्दिक साक्ष्य) । वृत्तियों पर अधिकार
२७. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । वृत्तिसारूप्यमितरत्र। यो० सू० (१२-४)। कुछ अन्य ग्रन्थों द्वारा उपस्थापित योग-परिभाषाओं को भी जान लेना आवश्यक है। विषयेभ्यो निवाभिप्रेतेऽर्थे मनसोऽवस्थापनं योगः । देवल-धर्मसूत्र; वृत्तिहीनं मनः कृत्वा क्षेत्रझं (जः ५॥१) परमात्मनि । एकीकृत्य विमुच्येत योगोयं मुख्य उच्यते ॥ दक्षस्मृति (७.१५); आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः । तस्या ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ॥ विष्णुपुराण (६१७३१) । इन तीनों परिभाषाओं को अपरार्क (याज्ञ० ३३१०६, पृ० ६८६) एवं कृत्यकल्प० (मोक्ष पर पृ० १६५) ने उद्ध त किया है। स्वयं अपरार्क ने कहा है-'जीवपरमात्मनोरभेदविज्ञानं विषयान्तरासम्भिन्नं योगः।'
२८. वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः। प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मतयः । प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ।... अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिनिद्रा । अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः । यो० सं० १२५-७ एवं १०-११ । क्लेश (अर्थात् बाधाएँ या स्कावर्ट) पाँच हैं-अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशाः क्लेशाः (योगसूत्र २॥३)। इस पर भाष्य इस प्रकार है-सेयं पञ्चपर्वा भवत्यविद्या अविद्यास्मिता. . . . निवेशाः क्लेशा इति। एत एव स्वसंज्ञाभिस्तमो मोहो महामोहस्तामिस्रोऽन्धतामिल इति । अविद्या के पाँच स्वरूप हैं, यथा-अविद्या आदि जो क्रम से मोह. . . आदि कहे जाते हैं। वाचस्पति ने इन पाँचों की व्याख्या की है। अस्मिता के विषय में उनका कथन यों है-'योगिनामष्टस्वणिमादिकेष्वश्वर्येष्वश्रेयःसु भयोबुद्धिरष्टविधो मोहः पूर्वस्माज्जघन्यः । स चास्मितोच्यते । बुद्धचरित (१२।३३) में ये भावनाएँ पायी जाती हैं-इत्यविद्या हि विद्वांसः पञ्चपर्वा समीहते । तमो मोहं महामोहं तामिस्त्रद्वयमेव च ॥ विभिन्न प्रकार के दुःखों में निमज्जित मनुष्यों को वे कष्ट देते हैं इसी लिए उन्हें क्लेश कहा जाता है । 'अविद्यादयः क्लेशाः क्लिश्नन्ति खल्वमी पुरुष सांसारिक विविधदुःखप्रहारेणेति' वाचस्पति (योगसूत्र ११२४)।
२६. योगभाष्य (योगसूत्र १३१०) के अनुसार निद्रा एक विशिष्ट भावात्मक अनुभूति (प्रत्यय) है, यह केवल मन की क्रियाओं अथवा चञ्चल गतियों का अभाव मात्र नहीं है, क्योंकि जब व्यक्ति निद्रा से जागता है तो वह सोचता है--'मैं भली भांति सोया हूँ। मेरा मन प्रसन्न है और मेरी चेतना या ज्ञान को स्पष्ट करता है।' इस प्रकार का सोचना या विचारना सम्भव नहीं होता यदि (निद्रा के समय) इस प्रकार के भाव के कारण की अनुभूति न होती । जिस प्रकार समाधि में व्यक्ति को अन्य विचारों (यथा-मामक धारणाओं
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