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धर्मशास्त्र का इतिहास यदि यह माना जाय कि योगसूत्र एवं महाभाष्य के लेखक भिन्न व्यक्ति हैं, तो यह मानने के लिए हमारे पास कोई स्पष्ट तर्क नहीं है कि योगसूत्र के लेखक की तिथि ईसा के पश्चात् दूसरी या तीसरी शती के उपरान्त की है। योगसूत्र की तिथि की जानकारी के लिए व्यास के योगभाष्य की तिथि अधिक महत्त्वपूर्ण है। किन्तु योगभाष्य की तिथि का प्रश्न भी विवादास्पद है। योगभाष्य के रचयिता व्यास महाभारत के व्यास से
वाचस्पति मिश्र जैसे आरम्भिक टीकाकारों के मतानुसार योगसूत्र के लेखक पतञ्जलि कहे गये हैं। उन पतञ्जलि के काल और पाणिनि-व्याकरण के वार्तिकलेखक एवं उस पर लिखे गये महाभाष्य लेखक पतञ्जलि की समानुरूपता के विषय में महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं। वैयाकरण पतञ्जलि सामान्यतः ई० पू० लगभग १५० में वर्तमान कहे जाते हैं । इसी से योगसूत्र की तिथि के लिए समानुरूपता का प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो जाता है। कुछ विद्वान्, यथाप्रो० बी० लाइविख, डा० हावर एवं प्रो० दासगुप्त दोनों पतञ्जलियों को एक ही मानते हैं, किन्तु कुछ अन्य विद्वान्, यथा-जैकोबी, कीथ, वुड्स, रेनौ इस मत के विरुद्ध हैं। प्रो० रेनौ (इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, जिल्द १६, पृ. ५८६-५६१) ने इस प्रश्न पर व्याकरण की दृष्टि से प्रकाश डाला है और कहा है कि 'प्रत्याहार', 'उपसर्ग', 'प्रत्यय' के समान योगसूत्र में कुछ ऐसे शब्द हैं जो महाभाष्य द्वारा निर्धारित अर्थों से भिन्न हैं । किन्तु दोनों ग्रन्थों के विषय भिन्न हैं, एक ही प्रकार के शब्द विभिन्न अर्थ रख सकते हैं। इसी प्रकार प्रो० रेनौ व्याकरण-सम्बन्धी नियमों के उल्लंघन की बात भी कहते हैं (योगसूत्र ११३४ में), जब कि महाभाष्य के पतञ्जलि पाणिनि के नियमों के परिपालन में बड़े कठोर हैं (स्वयं पाणिनि ने कहीं-कहीं अपने नियमों का पालन नहीं किया है, यथा-११४१५५ एवं २।२।१५) । किन्तु बात ऐसी नहीं है । पतञ्जलि ने भी 'अव्यविकन्याय' के स्थान पर 'अविरविक न्याय' प्रयोग किया है, जिसके लिए उनकी आलोचना की गयी है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि योगसूत्र ने ही सर्वप्रथम योग के परिभाषिक शब्दों को निश्चित कर दिया था। योग के पारिभाषिक शब्द उपनिषद्-काल से ही विकसित हो रहे थे
और पतञ्जलि ने उन्हें उन्हीं अर्थों में प्रयुक्त किया जो कई शतियों से प्रयोग में चले आ रहे थे । प्रो० रेनो ने यह निष्कर्ष निकाला है कि योगसूत्र महाभाष्य से कई शतियों उपरान्त लिखा गया। जैकोबी ने योगसूत्र को पाँचवीं शती की रचना माना है (जे० ए० ओ० एस्०, जिल्द ३१, पृ० १-२६) और गार्वे के अनुसरण में ऐसा सोचा है कि व्यासभाष्य सम्भवतः ७वीं शती में प्रणीत हआ। ज्वालाप्रसाद ने जैकोबी की आलोचना की है (जे० आर० ए० एस०, १६३०, पृ० ३६५-३७५) । प्रस्तुत लेखक रेनौ एवं जैकोबी के मतों को स्वीकार नहीं करता।
योगमाष्य की तिथि का योगसत्र की तिथि से गहरा सम्बन्ध है। योगभाष्य से पता चलता है कि नगर पर्याप्त साहित्यिक क्रियाएँ एवं प्रतिक्रियाएँ हई थीं। इसने योगसत्र (२१५५ एवं ३३१८) पर जैगीषव्य का उल्लेख किया है, और जंगीषव्य का महाभारत में महत्त्वपूर्ण उल्लेख है, जैसा कि हमने इसी अध्याय में पहले ही देख लिया है। और देखिए उस असित देवल का वत्तान्त, जिसके साथ जैगीषव्य, भिक्ष एवं योग में दक्ष के रूप में वर्षों से (शल्य-पर्व, अध्याय ५०)। यह अवलोकनीय है कि एक ही सूत्र की कई व्याख्याएँ भाष्य में पायी जाती हैं (यथा २१५५ पर)। योगसूत्र में विवेचित कतिपय विषयों पर श्लोकों एवं कारिकाओं को योगभाष्य ने उद्धृत किया है, यथा-११२८.४८: २१५, २८ (विवेकख्याति के ६ कारण), २।३२, ३।६, ३३१५ (अपरिदृष्ट कोटि के सात चित्तधर्मों पर)। इसके अतिरिक्त भाष्य में कतिपय गद्यात्मक उद्धरण पाये जाते हैं, जिनमें बहुत-से वाचस्पति द्वारा पञ्चशिख-कृत कहे गये हैं। इससे स्पष्ट है कि योगसूत्र एवं भाष्य में कई शतियों का अन्तर है।
भाष्य ने योगसूत्र (२।४२) पर 'तथा चोक्तम्' के साथ एक श्लोक उद्धृत, किया है, जो शान्ति-पर्व के एक श्लोक (१७११५१, १७७१५१ चित्रशाला प्रेस) से मिलता है । यह असम्भव-सा प्रतीत होता है कि कोई लेखक अपने किसी प्रस्ताव के समर्थन में अपने किसी अन्य ग्रन्थ से तर्क उपस्थित करे। इसके अतिरिक्त योगभाष्य (यो० स०
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