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धर्मशात्र का इतिहास जाते हैं । ३५ मनु (१२।५०) ने महान् एवं अव्यक्त का उल्लेख किया है । याज्ञ० (३६१-६२) ने ज्ञानेन्द्रियों के पांच पदार्थों, पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों एवं मन (कुल १६) का उल्लेख किया है। इन १६ को अहंकार, बुद्धि, पाँच तत्त्वों, क्षेत्रज्ञ एवं ईश्वर के साथ याज्ञ० (३।१७७-१७८) में उल्लिखित किया गया है तथा बुद्धि को अव्यक्त से, अहंकार को बुद्धि से, तन्मात्राओं को अहंकार से उत्पन्न माना गया है और इसी प्रकार पाँच तत्त्वों के पांच गुणों (शब्द, स्पर्श आदि) की तथा तीन गुणों की चर्चा है।
इस अध्याय के आरम्भ में हमने देख लिया है कि शंकराचार्य के मतानुसार धर्म के सूत्रकार देवल ने सांख्य पद्धति को स्वीकार किया है। इस पर हम यहाँ पर संक्षेप में विवेचन उपस्थित करेंगे। अपरार्क (याज्ञ० ३।१०६) ने देवल से एक लम्बा उद्धरण लिया है, जो यह कहने के उपरान्त कि मानव जीवन के दो लक्ष्य (पुरुषार्थ) हैं, यथा अभ्युदय एवं निःश्रेयस तथा निःश्रेयस में सांख्य एवं योग का समावेश है, सांख्य की परिभाषा करता है कि सांख्य में २५ तत्त्व पाये जाते हैं तथा योग में मन को इन्द्रियों के पदार्थों से पृथक् खींचकर वांछित लक्ष्य पर स्थिर करना होता है। देवल ने पुन: कहा है कि दोनों का फल अपवर्ग ही है, जिसका तात्पर्य है जन्म एवं मरण के दुःखों से पूर्ण मुक्ति । उस उद्धरण में पुनः आगे आया है कि प्राचीन मुनियों द्वारा सांख्य एवं योग के विषर्य में युक्तिसंगत एवं परम्परानुगत विशाल एवं गम्भीर तन्त्र प्रणीत किये गये हैं । सांख्यों में ये तत्त्व पाये जाते हैं, यथा-मूल प्रकृति; सात कोटियां जो प्रकृतियाँ एवं विकृतियां दोनों हैं; पांच तन्मात्राएँ; १६ विकार; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेद्रियां, पांच इन्द्रिय-पदार्थ, पाँच तत्त्व; १३ करण, जिनमें तीन तो अन्तःकरण हैं; पाँच प्रकार के विपर्यय; २८ प्रकार की अशक्ति; ६ प्रकार की तुष्टि ; आठ प्रकारकी सिद्धियाँ ; इस प्रकार कुल ५० प्रत्ययभेद हैं और दस मौलिक तत्त्व हैं, यथा-अस्तित्व आदि।
___ लक्ष्मीधर का निबन्ध कृत्यकल्पतरु भी , जो १२वीं शती के प्रथम चरण में प्रणीत हुआ है, देवल के धर्मसूत्र से उद्धरण देता है जो अपरार्क के उद्धरण से बहुत कुछ मिलता है।
अपरार्क एवं कृत्यकल्पतरु (मोक्षकाण्ड) ने सांख्य पद्धति पर यम के उद्धरण लिये हैं। यम ने २५ तत्त्वों के उल्लेख के उपरान्त पुरुषोत्तम को २६वा तत्त्व माना है ।
पुराणों में सांख्य सिद्धान्तों पर लम्बे-लम्बे विवेचन पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ, विष्णुपुराण (१।२।१६२३, २५-६२, ६।४।१३-१५, १७, ३२-४०) में सांख्य सिद्धान्तों का उल्लेख है जिसे कृत्यकल्पतरु (मोक्षकाण्ड, पृ० १०२-१०८) ने उद्धृत किया है। किन्तु इस पुराण में परमात्मा (यहाँ विष्णु) को सब तत्त्वों का आश्रय माना गया है। और देखिए विष्णुपुराण (१।२।२२-२३, २८-२६; ६।४।३६-४०)।
बहुत से पुराणों ने सांख्य सिद्धान्तों की विशद व्याख्या उपस्थित की है। किन्तु स्थानाभाव से हम उनकी चर्चा यहाँ नहीं कर सकेंगे। मत्स्य० (३।१४-२६) प्रकृति, गुणों एवं २५ तत्त्वों से आरम्भ करता है और कहता है कि ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर हैं तो एक किन्तु वे गुणों की क्रिया के कारण पृथक् प्रकट हुए। अन्त में निष्कर्ष दिया गया है कि सांख्य का उद्घोष कपिल आदि ने किया। और देखिए ब्रह्मपुराण (१-३३-३५, ३३।३-४, २४२, ६०-७०, ७६-७५), पद्मपुराण (पातालखण्ड ८५।११-१८, सृष्टिखण्ड, २।८८
३५. बुदेरुत्पत्तिरव्यक्तात्ततोहडकारसम्भवः । तन्मात्रादीन्यहंकारादेकोत्तरगुणानि च ॥ याज्ञ० (३७६); मिलाइए सत्त्वं शाम तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजः स्मृतम् । मनु० (१२।२६) एवं सी० का० (१३) तथा गीता (१४॥६-८) एवं याज्ञ० (३॥१३७-१४०)।
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