________________
२४२
धर्मशास्त्र का इतिहास एच्०, खण्ड ६, पृ० ३६-४६) ने विन्ध्यवास एवं ईश्वर कृष्ण की समानरूपता के प्रश्न पर विचार किया है। प्रस्तुत लेखक उनके मत को मानता है, किन्तु यह बात नहीं स्वीकार करता कि विन्ध्यवास ईश्वरकृष्ण से पूर्व हुए थे। श्री भट्टाचार्य ने ईश्वरकृष्ण को ३३०-३६० ई० का माना है। किन्तु इसके लिए कोई शक्तिशाली साक्ष्य नहीं है। तककुसु ने विन्ध्यवास को वृषगण का शिष्य कहा है (जे० आर० ए० एस्, १६०५, पृ० ४७) और परमार्थ के मत से वृषगण एवं विन्ध्यवास बुद्ध के निर्वाण के १० शतियों उपरान्त हुए थे। कमलशील (तत्त्व-संग्रह, पृ० २२) से प्रकट होता है कि विन्ध्यवास का एक नाम रुदिल भी था।
अभिनवगुप्त की अभिनवभारती ने दोनों में भेद किया है, अतः यह सम्भव है कि विन्ध्यवास ने ईश्वरकृष्ण के उपरान्त सांख्य सिद्धान्त को केवल सुधारा। राजमार्तण्ड में भोजदेव (योगसूत्र ४।२२, दृष्टिदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम्) ने विन्ध्यवासी का एक गद्यांश उद्धृत किया है। ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रन्थ लिखा है, इसके विषय में हमें कोई साक्ष्य नहीं प्राप्त होता, अत: विन्ध्यवासी को ईश्वरकृष्ण से पृथक् व्यक्ति मानना चाहिए, जैसा कि भोजदेव का कथन है। युक्तिदीपिका ने विन्ध्यवासी के मतों का कई बार उल्लेख किया है, अत: वे सांख्यकारिका के लेखक ईश्वरकृष्ण से भिन्न व्यक्ति थे। देखिए पृ० ४, १०८, १४४ एवं १४८। इस ग्रन्थ में ऐसा आया है कि आचार्य (सांख्यकारिका के लेखक) ने जिज्ञासा' एवं शास्त्र के अन्य तत्त्वों का उल्लेख नहीं किया, किन्तु विन्ध्यवास जैसे अन्य आचार्यों ने उनका उल्लेख अपने ग्रन्थों में किया है । पृ० १४४. १४५ की टीका का कथन है कि विन्ध्यवासी के अनुसार इन्द्रियाँ 'विभु' (चारों ओर विस्तृत अर्थात् फैली हुई) हैं, विन्ध्यवासी ने सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व नहीं माना , किन्तु ईश्वरकृष्ण ने इन्द्रियों को विभु नहीं माना है
और कहा है कि सूक्ष्म शरीर होता है। युक्तिदीपिका (पृ० १४४) का कथन है कि पतञ्जलि ने सूक्ष्म शरीर की कल्पना की है।
अब हमें यह देखना है कि दर्शन के एक सिद्धान्त को 'सांख्य' शब्द से क्यों द्योतित किया गया । 'सांख्य' का अर्थ है 'संख्या', अतः यह गणना है। सांख्य सिद्धान्त न २५ तत्त्वों की गणना की है तथा पञ्चशिख के षष्टितन्त्र ने ६० विषयों का विवेचन किया है, सम्भवतः इसी से इस दर्शन को सांख्य कहा गया है। श्वेताश्वतरोपनिषद् (१४) संख्याओं से परिपूर्ण है । 3 श्वेता० उप० का ११५ मन्त्र 'पञ्च' शब्द सात बार प्रयुक्त करता है और उसमें 'पञ्चाशद्भेदाम्' 'शतारिम्' के समान ही है। और देखिए (६॥३)। इस अर्थ में सांख्य का तात्पर्य
३२. नाट्यशास्त्र (२२१८८-८६, गायकवाड ओरिएण्टल सीरीज, खण्ड ३, पृ० १८४, मनसस्त्रिविधो भावः) में अभिनवगुप्त ने इस प्रकार कहा है-'कापिलदृशि तु विन्ध्यवासिनो मनस एव ईश्वरकृष्णादिमते मनःशब्देनात्र बुद्धिः ।' मेधा० (मनु ११५५) ने कहा है-'कश्चिदिष्यते अस्त्यन्यदन्तराभवं शरीरं यस्येयमुत्क्रान्तिः। ...सांख्या अपि केचिन्नान्तराभवमिच्छन्ति विन्ध्यवासप्रभृतयः ।' देखिए सां० का० ( ३६-४१ ), जहाँ अन्तराभव शरीर का उल्लेख है।
३३. तमेकम त्रिवृतं षोडशान्तं शर्ताधारं विशतिप्रत्यराभिः । अष्टकैः षडभिविश्वरूपकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तकमोहम् ॥ श्वेताश्वतरोपनिषद् (१।४) । शतार्धारं का अर्थ है 'जिसमें ५० तीलियां हों।' सां० का० (४६-४७) ने बुद्धिसर्ग के ५० भेदों की ओर संकेत किया है। आठ मौलिक तत्त्व हैं, यथा--प्रकृति, महत, अहंकार एवं पाँच तन्मात्राएं । 'सांख्यं सख्यात्मकत्वाच्च कपिलादिभिरुच्यते।' मत्स्य० (३।२६)। और देखिए शान्ति० (२६४४१)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org