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________________ २४० धर्मशास्त्र का इतिहास बृहदारण्यकोपनिषद् (२।६।३ एवं ६।५।२-३) में, जिसमें आचार्यों एवं शिष्यों की सूचियों में अन्तर पाया जाता है, आसुरि को प्रथम सूची में भरद्वाज का शिष्य तथा दूसरी सूची में याज्ञवल्क्य का शिष्य कहा गया है। प्रत्येक सूची में ब्रह्मा के उपरान्त कम-से-कम ६० आचार्यों के नाम आये हैं। पहली बात तो यह है कि इन सूचियों में सचाई कितनी है यह कहना कठिन है, दूसरी बात यह है कि दोनों सूचियों में उल्लिखित आसुरि को कपिल का ही शिष्य कहना कहाँ तक ठीक होगा। सांख्य सिद्धान्त में पञ्चशिख का एक महत्त्वपूर्ण नाम है। उस सिद्धान्त के विषय में उनका क्रमबद्ध ग्रन्थ है षष्टितन्त्र । सांख्यकारिका (७० एवं ७२) ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ में ६० विषयों एवं ६० सहस्र गाथाओं की चर्चा है ।२७ योगसूत्रभाष्य (४।१३) में एक ऐसे श्लोक का उद्धरण है जो वाचस्पति द्वारा षष्टितन्त्र का कहा गया है। प्रस्तुत लेखक को प्रो० कीथ की यह मान्यता स्वीकार्य नहीं है कि सांख्यकारिका (७२) में पष्टितन्त्र की ओर जो संकेत है वह किसी ग्रन्थ की ओर नहीं है, प्रत्ययुत वह ६० विषयों वाले एक दर्शन की ओर है। आर्या ७२ की एक संस्कृत टीका थी, जो सन् ५४६ ई० में चीनी भाषा में अनूदित की गयी, जिसमें यह कहा गया कि ग्रन्थ में ६० गाथाएँ थीं२८, किन्तु भामती (वाचस्पतिकृत वे० सू० २।१।३ की टीका) ने इसे वार्षगण्य का माना है। यह वाचस्पति की त्रुटि हो सकती है, या यह सम्भव है कि उन्होंने पञ्चशिख एवं वार्षगण्य को एक ही व्यक्ति समझा हो—पहला 'पुकारू' नाम तथा दूसरा गोत्र नाम हो । योगसूत्र (१।४।२५, ३६; २।५।६, १३, १७, १८, २०; ३।१३ एवं ४१; ४।१३-तथा च शास्त्रानुशासनं 'गुणानाम्...) में गद्यात्मक वचन आये हैं जिन्हें वाचस्पति ने पञ्चशिख के माना है। सांख्यकारिका (२) की टीका में वाचस्पति ने पञ्चशिखाचार्य के मत उद्धत किये हैं। योगसूत्रभाष्य (१।२५) की टीका में एक सूत्र उद्धृ त है जिसे वाचस्पति ने पञ्चशिख का माना है और उस सूत्र में कपिल को 'आदिविद्वान्' (सांख्य के प्रथम आचार्य) एवं 'परमषि' कहा गया है और ऐसा आया है कि कपिल ने आसुरि को तन्त्र एवं सांख्य-सिद्धान्त का ज्ञान दिया। शान्तिपर्व (अध्याय ३०६) में विश्वावसु गन्धर्व तथा याज्ञवल्क्य का जो संवाद आया है उसमें उन मुनियों की सूची दी हुई है जिनसे विश्वावसु ने बहुत कुछ ज्ञान ग्रहण किया, किन्तु विश्वावसु ने याज्ञवल्क्य से सांख्य एवं योग की व्याख्या के लिए प्रार्थना की है। याज्ञवल्क्य बताते हैं कि प्रकृति को प्रधान भी कहते हैं, जिसे २५वें (अर्थात् पुरुष) का ज्ञान नहीं होता और २६वाँ (अर्थात् परमात्मा) भी होता है। उस सूची में निम्नलिखित नाम आये है-जैगीषव्य, असित, देवल, पराशर गोत्र के वार्षगण्य, भिक्षु पञ्चशिख, कपिल, शुक, गौतम, आष्टिषेण, गार्ग्य, नारद, आसुरि, पुलस्त्य, सनत्कुमार, शुक्र, कश्यप के पिता। ये मुनि तिथि-क्रम से नहीं रखे गये हैं और कतिपय मुनि सांख्य एवं योग के विषय में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यह हम पहले ही देख चुके हैं कि पञ्चशिख पराशर गोत्र के थे और उपर्युक्त सूची में वार्षगण्य महोदय भी उसी गोत्र के कहे गये हैं। वाचस्पति ने सांख्य २७. अयं पञ्चशिखः षष्टिसहस्रगाथात्मकं विपुलं तन्त्रमुक्तवान् । ५० ऐयस्वामी का संस्करण, पृ० १७; षष्टिपदार्था यस्मिन् शास्त्रे तन्त्र्यन्ते व्युत्पाद्यन्ते तत्षष्टि तन्त्रम् । माटरवृत्ति।। २८. लगता है, यहाँ पर 'गाथा' का अर्थ है, '१२ अक्षरों का एक दल' या 'एक इकाई के रूप में मात्राओं को एक निश्चित संख्या।' पंचशिख के जो उद्धरण मिलते हैं, वे अधिकांश में गद्य में हैं, केवल योगसूत्रभाष्य (४।१३) वाला पद्य में है और साँख्य-सूत्र वाले भावा-गणेश जैसे पश्चात्कालीन टीकाकार ही पंचशिख के श्लोक उद्धत करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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