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________________ धर्मशास्त्र को इतिहास है' (२४-२६) । इसके उपरान्त ज्ञान के पाँच अंगों अर्थात् पञ्च ज्ञानेन्द्रियों (कर्ण, चर्म, चक्षु, जिह्वा एवं नासिका) एवं पञ्च कर्मेन्द्रियों (हाथ, पैर आदि), ज्ञानेन्द्रियों के पञ्च विषयों (शब्द, स्पर्श आदि) एवं १६३ मन (जो विभ है) का उल्लेख हुआ है (श्लोक २७-३१) । इसके पश्चात् अध्याय में पुरुष (आत्मा) का उल्लेख है, जो नव द्वार वाले नगर का निवासी है और अमर एवं अविनाशी है८, जो सभी जीवों में दीपक के समान देदीप्यमान है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा। २०४ वें अध्याय में वही कथनोपकथन आगे चलता है और प्रथम श्लोक में आया है कि सभी भूतों की उद्भूति अव्यक्त से होती है और वे पुन: अव्यक्त में ही समा जाते हैं। इसमें क्षेत्र (शरीर, देह) एवं क्षेत्रज्ञ (श्लोक १४) की ओर संकेत है और अन्त में निष्कर्ष रूप में यह कहा गया है कि जिस प्रकार अग्नि-दग्ध बीज नहीं जमते, आत्मा उन क्लेशों से, जो सम्यक ज्ञान की अग्नि से जल जाते हैं, पुन: सम्बन्धित नहीं होता ।१९ अध्याय १०५ में २२-२३ श्लोक तीन गुणों की विशेषता बताते हैं । अध्याय २०६ में आया है कि जब जीव क्रोध, लोभ, भय, दर्प को संयमित कर लेता है तो वह परमात्मा, अर्थात् विष्णु में, जो अव्यक्त रूप है, समाहित हो जाता है । अध्याय २०७ में उन उपायों का उल्लेख है जिनके द्वारा परम लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है और ब्रह्मचर्य को प्रथम उपाय माना गया है। इन अध्यायों में जो सिद्धान्त कहे गये हैं और जिनमें कुछ सांख्यकारिका के अनुरूप हैं, वे वेदान्त के परब्रह्म की संगति में बैठ जाते हैं, किन्तु मौलिक सांख्य में तो परब्रह्म की बात ही नहीं उठती। शंकराचार्य ने वे० सू० (२।२।३७) के भाष्य में स्पष्ट रूप से कहा है कि कुछ ऐसे दार्शनिक थे जिन्होंने सांख्य एवं योग के सिद्धान्तों को अपना लिया था, परमेश्वर की कल्पना कर ली थी और ऐसी धारणा रखते थे कि तीनों, अर्थात प्रधान, पुरुष एवं ईश्वर एक-दूसरे से भिन्न हैं। अतः महाभारत में जो सांख्य की ओर संकेत मिलते हैं, सम्भवत: वे उन दार्शनिक सिद्धान्तों से सम्बन्धित हैं जिनमें तीनों, अर्थात् प्रकृति, पुरुष एवं परमात्मा को स्वीकार किया गया था, जिनसे उस पश्चात्कालीन सांख्य सिद्धान्त की उति हई जिसने विश्व के परम शासक की धारणा को त्याग दिया। शान्ति पर्व के नारायणीय प्रकरण में सांख्य, योग, पाञ्चरात्र, वेदों एवं पाशुपत को 'ज्ञानानि' एवं 'नानामतानि' (विभिन्न दृष्टिकोण) की संज्ञा दी गयी है और कपिल १७. मूलप्रकृतयोऽष्टौ ता जगदेतास्ववस्थितम् । ज्ञानेन्द्रियाण्यतः पञ्च पञ्च कर्मेन्द्रियाण्यपि। विषया पञ्च चैकं च विकारे षोडशं मनः ॥ श्लोक २६-२७ । मिलाइए सांख्यकारिका (३)। १८. नवद्वारं पुरं पुण्यमेतर्भावः समन्वितम् । व्याप्य शेते महानात्मा तस्मात्पुरुष उच्यते ॥ शान्तिपर्व (२०३।३५) । मिलाइए भगवद्गीता. 'नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन् न कारयन् ।' 'पुरुष' शब्द सामान्यतः इस प्रकार व्युत्पन्न किया जाता है, 'पुरि शेते इति पुरुषः', देखिए निरुक्त (१।१३): यथा चापि प्रतीतार्थानि स्युस्तथैतान्याचक्षीरन् पुरुषं पुरिशय इत्याचक्षीरन्; किन्तु २।३ में इसने इसकी तीन व्युत्पत्तियां दी हैं 'पुरुषः पुरिषादः पुरिशय पूरयतेर्वा' (प्रथम है सद् अर्थात् बैठना धातु से उत्पन्न, पुरि+ष)। 'पुरि शेते' से व्युत्पन्न शब्द बह० उप० (२।४।१८) में आया है ‘स वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयः।' 'नवद्वारे पुरे देही ' श्वेताश्व० (३॥१८) में आया है। १६. योगसूत्र में 'क्लेश' एक पारिभाषिक शब्द है जहाँ यह अधिकतर आया है, यथा-०२४, २१२ एवं ३, २॥१२, ४।२८ एवं ३०। योगसूत्र (२॥३) में पाँच क्लेशों को इस प्रकार बताया गया है--'अविद्याअस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशाः क्लेशाः।' वे लोगों को तंग करते हैं, अतः क्लेश कहे जाते हैं (क्लिश्यन्ति पुरुषम्) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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