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________________ २२९ धर्मशास्त्र का इतिहास : आगे कुछ और कहने के पूर्व सांख्य की मौलिक धारणाओं पर प्रकाश डाल देना आवश्यक है । अत्यन्त मौलिक धारणा यह है कि अनन्त काल से ही एक-दूसरे से भिन्न दो सत्ताएँ पायी जाती हैं, यथा-प्रकृति, जिसे प्रधान एवं अव्यक्त भी कहा जाता है तथा पुरुष (आत्मा, ज्ञाता)। दूसरी मौलिक धारणा यह है कि पुरुष अनेक हैं । एक अन्य अत्यन्त विशिष्ट धारणा है तीन गुण (तत्त्व), यथा--सत्त्व (प्रकाश, बुद्धिमान्), रज (क्रियाशील, शक्तिशाली एवं प्रभविष्णु) एवं तम (अन्धकार, प्रमादी, भद्दा, ढंकने वाला)। प्रधान या प्रकृति या अव्यक्त का निर्माण तीन गुणों से होता है, अत: वह त्रिगुणात्मक कहा जाता है (सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था, अर्थात् जब सत्त्व, रज एवं तम समरस होते हैं तब वह त्रिगुणात्मक होता है)। सांख्य ने सभी भौतिक (स्थूल) एवं मानस सूक्ष्म तत्त्वों का विश्लेषण किया है । अत्यन्त निम्नकोटि का तत्त्व है भारी अभेद्य पदार्थ तथा स्थल एवं जड़ वृत्तियाँ, जो तमस् कही जाती हैं (गुरु, भारी, वरणक एवं ढंकने वाली) । पुनः एक ऐसा तत्त्व है जो स्थूल एवं सूक्ष्य विश्व में निरन्तर परिवर्तन का द्योतक है। इसे रजस् कहा जाता है (चल, परिवर्तनशील एवं उपष्टम्भक, उत्तेजक) । तीसरा पदार्थ या तत्त्व है चेतना से उद्भूत भिन्न-क्रिया-प्रकार जिससे ज्ञान एवं अनुभूति उत्पन्न होती है, इसे सत्त्व कहा जाता है (लघु, प्रकाश, जो स्थूल एवं केवल भौतिक पदार्थों के विरोध में होता है, प्रकाशक, प्रकाशमान जो तमस् का विरोधी होता है) । ये तीनों तत्त्व विभिन्न अनुपातों में मिल कर इस विकसित विश्व का निर्माण करते हैं। कई दृष्टिकोणों से इन्हें गुण की संज्ञा दी गयी है, ये विशेषताएँ हैं, वे मानो रस्सियाँ हैं, जो पुरुष को संसार से बांधती हैं। इस विश्व का आधार गुणों में निहित है। प्रधान गुणों से भिन्न नहीं है । प्रत्युत वह विकास आरम्भ होने के पूर्व के बीज या मौल (आदि) पदार्थ का नाम है। प्रकृति को अनादि एवं अनन्त कहा गया है, अतः सांख्य सिद्धान्त ने स्रष्टा के रूप में ईश्वर की कल्पना नहीं की और ईश्वर को अनावश्यक या व्यर्थ माना है । सांख्य ने विश्व के विकास से सम्बन्धित जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया है वह आधुनिक विकासवाद के सिद्धान्त के समान ही व्यावहारिक रूप से तर्कसंगत लगता है। सम्भवतः विश्व के उद्गम, मानव की प्रकृति एवं स्थूल जगत से उसके सम्बन्ध तथा मानव की भावी नियति के प्रश्नों के उत्तर में सांख्य सिद्धान्त सबसे प्राचीन प्रयास है जो केवल तर्क पर ही आधृत है । उन्नीसवीं शती में मन एवं प्रकृति को भिन्न तत्त्व माना गया और परमाणुओं को अविभाज्य ठहराया गया। आधुनिक भौतिक शास्त्रियों ने तत्त्व को शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया है, किन्तु इस अन्तिम शक्ति का स्वरूप ६. सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टमपष्टम्भकं चलं च रजः । गुरु वरणकमेव तमः प्रदीपवच्चार्थतो वृत्तिः॥ सां० का० (१३)। 'गुण' इसलिए कहे जाते हैं कि वे कई गुना बढ़ते जाते हैं (गुणयन्तीति) और वस्तुओं को विकसित करते हैं। मिलाइए 'मोहात्मकं तमस्तेषां रज एषां प्रवर्तकम्। प्रकाशबहुलत्वाच्च सत्त्वं ज्याय इहोच्यते॥' वनपर्व (२१२।४) एवं गीता (१४॥५-१८), जहाँ पर तीन गुणों पर विवेचन है, विशेषतः यह-'सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः (३५); तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम् । सुखसङगेन बध्नाति ज्ञानसङगेन चानघ ॥' श्लोक ६; रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङगसमुद्भवम् । श्लोक ७ । वे० सू० (२।२।१०)पर शंकराचार्य का कथन है कि वेदान्तसूत्र के काल में सांख्य सिद्धान्त ने परस्पर विरोधी बातें कहीं-'परस्परविरुद्धश्चायं सांख्यानामभ्युपगमः । क्वचित्सप्तेन्द्रियाण्यनुक्रामन्ति क्वचिदेकादश । तथा क्चचिन्महतस्तन्मात्रसर्गमुपदिशन्ति क्वचिदहङकारात् । तथा क्वचित्त्रीण्यन्तःकरणानि वर्णयन्ति क्वचिदेकमिति ।' सात इन्द्रियाँ ये हैं-धर्म, पाँच कर्मेंद्रियों एवं मन; तीन अन्तःकरण ये हैं-बुद्धि, भहंकार एवं मन । एक अन्तःकरण है बुद्धि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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