________________
२२१
धर्मशास्त्र का इतिहास अन्य बातें भी समाविष्ट हो गयी थीं। डा० वेलवाल्कर का यह भी कथन है कि गौड़पाद की टीका माठरवृत्ति का ही संक्षिप्त रूपान्तर है (पृ० १४८) । माठरवृत्ति को सन् ४५० ई. के उपरान्त नहीं रखा जा सकता (१० १५५) और ईश्वरकृष्ण को हम सन् २५० ई० के पश्चात् का नहीं मान सकते (पृ० १६८) । प्रो० ए० बी० कीथ ने अपने ग्रन्थ 'सांख्य सिस्टेम' (पृ० ५१) में कहा है कि ईश्वरकृष्ण सन् ३२५ ई० के पश्चात् नहीं रखे जा सकते । एक अन्य आरम्भिक टीका है युक्तिदीपिका, जिसके लेखक का नाम अज्ञात है और वह श्री पुलिनविहारी चक्रवर्ती द्वारा केवल एक हस्तलिपि प्रति से सम्पादित की गयी है (कलकत्ता संस्कृत सीरीज, सन् १६३८ ई०) । यह एक अति मूल्यवान् टीका है जो बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ केवल एक प्रति के आधार पर ही सम्पादित की गयी है, यद्यपि इसमें यत्र-तत्र स्थल-मंग भी पाया जाता है । इस टीका में बहुत-से उद्धरण एवं विवादात्मक विवेचन पाये जाते हैं, बहुत-से ऐसे आचार्यों के नाम आये हैं जिनके विचार एक-दूसरे से भिन्न हैं और यत्र-तत्र उनके विचार कतिपय विषयों पर दृष्टान्तस्वरूप उद्धत किये गये हैं। उदाहरणार्थ, देखिए नीचे 'विन्ध्यवासी' । इसमें कुछ ऐसे आचार्यों के नाम आये हैं जो किसी अन्य सांख्य ग्रन्थ में उल्लिखित नहीं हैं। पञ्चाधिकरण नामक आचार्य का नाम बहुधा आया है (पृ० ६, १०८, ११४, १३२, १४४, १४७, १४८, जहाँ पर पञ्चाधिकरण की दो आर्याएं उल्लिखित हैं) । एक अन्य आचार्य का नाम है पौरिक (पृ० १६६ एवं १७५), जिन्होंने एक आश्चर्यजनक दृष्टिकोण उपस्थित किया है कि प्रत्येक पुरुष के लिए एक पृथक् प्रधान होता है। पतञ्जलि का उल्लेख बहुधा हुआ है, यथा पृ० ३२ (यहाँ अहंकार के अस्तित्व को उन्होंने अस्वीकार किया है), १०८, १३२ (१२ करण हैं न कि १३, जैसा कि सांख्यकारिका ने ३२वें श्लोक में कहा है), १४५, १४६, १७५ । वार्षगणा: (बहुवचन में) का उल्लेख पृ० ३६, ६७, ६५, १०२, १४५, १७० पर हुआ है । वार्षगण का उल्लेख पृ. ६ एवं १०८ पर, वार्षगणवीर का पृ० ७२, १०८, १७५ पर (इन्हें पृ० ७२ पर भगवान् कहा गया है) तथा वृषगणवीर का पृ० १०३ (सम्भवत: इस शब्द का अर्थ है वृषगण का पुत्र) पर हुआ है , और ये सभी वार्षगणों के दृष्टिकोण की ओर निर्देश करते हैं । पञ्चशिख (पृ० ३१, बहुवचन में, पृ० ६१, १७५) का उल्लेख है और एक वचन का, जो व्यासभाष्य (योगसूत्र ११४) द्वारा उद्धृत है और जिसे वाचस्पति ने पञ्चशिख द्वारा लिखित माना है, उद्धरण युक्तिदीपिका द्वारा दिया गया है और पृ० ४१ पर उसे शास्त्र कहा गया है। पृ० ११३ एवं १२६ से प्रकट होता है कि टीका का लेखक वेदान्ती था। यह सम्भव है कि उनका काल ५०० एवं ७०० ई० के बीच कहीं रहा हो, क्योंकि उन्होंने (प० ३६ पर) दिङनाग की प्रत्यक्ष-सम्बन्धी परिभाषा को उद्धृत किया है और वाचस्पति तथा सांख्य के ने उनका उल्लेख नहीं किया है ।
गौड़पाद ने सांख्यकारिका पर एक टीका लिखी, किंतु केवल ६६ श्लोकों पर ही, जैसा कि चौखम्बा सीरीज में प्रकाशित हुआ है । प्रसिद्ध लेखक वाचस्पति मिश्र कृत सांख्यतत्त्वकौमुदी, चौखम्बा सं० सी० में सन् १६१६ ई० में प्रकाशित हुई। जयमंगला नामक टीका (जो शंकराचार्य द्वारा लिखित कही गयी है) कलकत्ता में सन १६३३ में श्री एच० शर्मा द्वारा प्रकाशित हुई, जिसकी संक्षिप्त किन्तु मनोरंजक भूमिका प्रिंसिपल गोपीनाथ कविराज ने लिखी है (देखिए इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, जिल्द ५, पृ० ४१७-४३१)। इसमें श्री एच० शर्मा ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि सांख्यकारिका की टीका जयमंगला वाचस्पति
३. प्रतिपुरुषमन्यत् प्रधानं शरीराद्यर्थ करोति । तेषां च माहात्म्यशरीरप्रधानं यदा प्रवर्तते तदे. तराण्यपि, तन्निवृत्तौ च तेषामपि निवृत्तिरिति पौरिकः सांख्याचार्यों मन्यते । युक्ति०, पृ० १६६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org