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________________ ३१. धर्मशास्त्र का इतिहास मीमांसा के बड़े-से-बड़े विद्यार्थी भी विभिन्न निष्कर्षों पर पहुँचते हैं । कुछ विचित्र उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं । वसिष्ठ के सूत्र (१५२५-न स्त्री पुत्रं दद्यात् प्रतिगृह्णीयाद् वा अन्यत्रानुज्ञानाद्भर्तुः) की व्याख्या को लिया जाय । 'कोई स्त्री बिना पति की आज्ञा के न तो गोद के लिए पुत्र दे सकती है और न ले सकती है।' इसकी व्याख्या चार प्रकार से की गयी है । हिन्दू विधवा द्वारा गोद लिये जाने के विषय में ग्रन्थों एवं लेखकों ने विभिन्न व्याख्याएँ उपस्थित की हैं। दत्तकमीमांसा का कथन है कि कोई विधवा गोद नहीं ले सकती, क्योंकि पति की मृत्यु हो जाने से उसकी अनुमति प्राप्त नहीं की जा सकती। मैथिल ग्रन्थकार वाचस्पति ने यही बात दूसरे ढंग से कही है। वसिष्ठ का कथन है कि गोद लेने वाले को गृह के मध्य में व्याहृतियों के साथ होम करके उसी को गोद लेना चाहिए जो अदूरबान्धव हो, संनिकृष्ट हो और दूर न रहता हो, और क्योंकि स्त्रियाँ वैदिक मन्त्रों के साथ होम नहीं कर सकतीं अतएव विधवा के सहित सभी स्त्रियों को गोद लेने का अधिकार नहीं है।५६ किन्तु बंगाल में ऐसा मान्य था कि गोद के समय पति की अनुमति की आवश्यकता नहीं है, वास्तविक गोद लेने के बहुत पहले ही अनुमति ली जा सकती है । मद्रास में ऐसा मान्य था कि “केवल पति की अनुमति से ही" वाक्य केवल दार्टान्तिक है और इसलिए श्वशुर के सम्बन्धी लोगों या पति के सम्बन्धी लोगों की अनुमति या आज्ञा विधवा को गोद लेने के योग्य बना देती है। व्यवहारमयख, निर्णयसिन्ध एवं संस्कारकौस्तुभ का कथन है कि पति की अनमति उसी स्त्री के लिए आवश्यक है जिसका पति जीवित हो । यदि पति ने गोद लेने के लिए मना न किया हो तो स्त्री को गोद लेने का अधिकार है । इस विषय में विशद विवेचन के लिए देखिए इस महाग्रन्थ का मलखण्ड ३, १०६६८-६७४ । अब तो सन् १६५६ के कानून ने इन सभी प्राचीन नियमों को समाप्त कर दिया है। मिताक्षरा एवं दायभाग दोनों मीमांसा के सिद्धान्तों से ओत-प्रोत हैं, किन्तु दोनों कतिपय बातों में एक-दूसरे से भिन्न मत उपस्थित करते हैं, जिनमें कुछ यों हैं-(१) मिताक्षरा का कथन है कि उत्तराधिकार या स्वामित्व जन्म से ही उत्पन्न होता है, किन्तु दायभाग इसे अमान्य ठहराता है और कहता है कि इसका आरम्भ पूर्व स्वामी की मृत्यु या विभाजन से होता है; (२) दायभाग के अनुसार उत्तराधिकार के लिए उत्तम अधिकार धार्मिक प्रभाव से उत्पन्न होता है, किन्तु मिताक्षरा के अनुसार रक्त-सम्बन्ध की सन्निकटता ही इसे निश्चित करती है; (३) दायभाग के अनुसार संयुक्त परिवार के सदस्य सम्पत्ति पर अलग-अलग अधिकार रखते हैं और विभाजन के पूर्व उसे बेच सकते हैं, किन्त और विभाजन के पूर्व उसे बेच सकते हैं, किन्तु मिताक्षरा इसके विरोध में है। (४) दायमाम के अनुसार संयुक्त परिवार में भी विधवा पति की मृत्यु के उपरान्त सन्तानरहित होने पर पति के भाग को पा जाती है। किन्तु मिताक्षरा ने इसे अमान्य ठहराया है। याज्ञ० (१।८१) के समान अन्य वचनों के विषय में भी कई मत-मतान्तर पाये जाते हैं (विधि है या नियम है या परिसंख्या है)। व्यवहारमयख एवं रघुनन्दन में मतभिन्न्य पाया जाता है, जब कि दोनों घोर मीमांसक हैं। 'मात' शब्द की व्याख्या में अपरार्क एवं दायभाग में प्रमत अन्तर है। इसी प्रकार अन्य मत-मतान्तर भी हैं । ५६. अत एव वसिष्ठः । न स्त्री पुत्र... भर्तुः-इति । अनेन विधवाया भत्रनुज्ञानासम्भवादनधिकारो गम्यते। ...कि च व्याहृतिभिर्तुत्वा अदूरबान्धवं संनिकृष्टमेव प्रतिगृह्णीयात्-इति समानकर्तृकताबोधकक्त्वाप्रत्ययश्रवणात् होमकर्तुरेव प्रतिग्रहसिद्धेः स्त्रीणां होमानधिकारत्वात् परिग्रहानधिकारः-इति वाचस्पतिः । दत्तकमीमांसा (पृ० १६ एवं २२-२३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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