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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
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शकलों पर पकाया गया पुरोडाश, इन्द्र के लिए दही, तथा इन्द्र के लिए दूध, प्रयाजों का एक सम्पादन इन तीनों के सम्पादन का कार्य कर देता है (११।११५-१६ एवं ११।१।२६-३७) । आधान (अग्नियों की स्थापना) का कृत्य केवल एक बार होता है, यह प्रत्येक इष्टि, पशुयाग या सोमयाग में बार-बार नहीं किया जाता (११।३।२); श्रौत कृत्यों के पात्रों का निर्माण केवल एक बार होता है और वे यजमान के मृत्युपर्यन्त काम आते हैं (११०३।३४-४२) ।१२ ये सभी बातें तन्त्र कही जाती हैं । सामान्य नियम यह है कि किसी एक कृत्य में सभी प्रमुख बातों के विषय में (यथा--दर्शपूर्णमास में आग्नेय एवं अन्य बातों के विषय में) स्थान, काल एवं कर्ता एक ही होता है (११।२।१) और वे सभी अंगों के लिए समान होते हैं; किन्तु अंगों के विषय में स्थान, काल एवं यजमान स्पष्ट वचनों (आदेशों) के कारण विभिन्न हो सकते हैं।
यदि सभी सहायक यज्ञों से समन्वित रूप में फल की प्राप्ति होती है तो सहायक अंगों का सम्पादन एक बार ही किया जाता है न कि अलग-अलग; यही तन्त्र है। किन्तु यदि फल की प्राप्ति सहायक यज्ञों से पृथक्-पृथक् होती है तो सभी सहायक अंगों का सम्पादन पृथक्-पृथक् होना चाहिए। इसे आवाप (विकेन्द्रीकरण या विस्तरण या फैलाव या छितरा देना) कहते हैं । दर्शपूर्णमास में वास्तव में यज्ञों के दो दल होते हैं, एक का नाम है दर्श (अमावस्या पर) और दूसरा है पूर्णमास ।५३ इन सब के लिए जो सहायक कृत्य हैं, वे अधिकांश में एक-समान ही हैं। तब मी दोनों दलों में वे बार-बार किये जाते हैं, और इसका मख्य कारण यह है कि दोनों का सम्पादन एक पक्ष से दूर दो तिथियों में होता है, यद्यपि दोनों मिल कर एक यज्ञ के द्योतक होते हैं और उनसे एक ही फल की प्राप्ति होती है । देखिए पू० मी० सू० (११।२।१२-१८) जहाँ आवाप का उदाहरण है।
____ अवेष्टि एक ऐसा यज्ञ है जो राजसूय नामक यज्ञ का एक भाग है और राजसूय का सम्पादन केवल क्षत्रियों द्वारा होता है । यह एक स्वतन्त्र यज्ञ भी है जो तीन उच्च वर्गों में किसी भी द्वारा सम्पादित हो सकता है । यह राजसूय का कोई भाग नहीं है और उससे भिन्न भी है, यद्यपि यह सच है कि राजसूय
प्रयोजकः । एवमेव प्रसंगः स्याद्विद्यमाने स्वके विधौ ॥ शबर (पू० मी० सू० ११ ।१३१) । और देखिए पतञ्जलि का महाभाष्य (वातिक ४)।
५२. यज्ञायुधानि धार्येरन् प्रतिपत्तिविधानादृजीषवत् । पू० मी० सू० ११॥३॥३४ । वैदिक वचन यों है : 'आहिताग्निमग्निभिर्दहन्ति यज्ञपात्रश्च ।' बस यज्ञायुधों का उल्लेख तै० सं० (१।६।८।२-३, स्फ्यश्च कपालानि च आदि) में हआ है। इनके एवं यज्ञों में प्रयुक्त अन्य पात्रों के लिए देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड २, पृ० १८५, पाद-टिप्पणी २२३३ । और देखिए पू० मी० सू० (११।३।४३-४५) जहाँ ऐसा उल्लेख है कि अग्न्याधेय के दिन से ही यज्ञपात्रों को रखना चाहिए और यजमान (याज्ञिक, आहिताग्नि) की मृत्यु के उपरान्त उन्हें उसके शव पर रख देना चाहिए, इस क्रिया को पात्रों एवं पवित्र अग्नियों का प्रतिपत्तिकर्म कहा जाता है ।
५३. १२२।१५ पर शबर का कथन है : 'अपि वा न तन्त्रभङ्गानि स्युः। कुतः कर्मपृथक्त्वात् । तेषां च तन्त्रविधानात । कर्माणि तावदेतानि भिन्नानि अन्यः पौर्णमासः समुदायोन्य आमावास्यः। एवं सर्वत्र । तेषां च देशकालभेदः। पौर्णमास्यां पौर्णमास्या यजेतेत्येवमादिः संगानां च तेषां तत्र तत्र देशकालविधिः ।... तस्मात्पौर्णमास्यंगानां पौर्णमासीकालः। अमावास्यांगानाममावास्याकालः। तत्र गृह्यते विशेषः। विशेषग्रहणाद् भेदः।'
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