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धर्मशास्त्र का इतिहास में प्रयुक्त अन्य दो शब्दों से पृथक रखा जाय और किसी लाल पदार्थ, यथा--एक वस्त्र-खण्ड के अर्थ में लिया जाय, या इसे क्रिया (क्रय करता है) से सम्बन्धित किया जाय और इस प्रकार यह क्रम से गौण हो जाय और एक वर्षीया बछिया की ओर संकेत करे। यह अन्तिम पक्ष ही स्थापित निष्कर्ष है। सोम का ऋय किस प्रकार किया जाय, इसका पता किसी अन्य उक्ति से नहीं चल पाता। अत: इस प्रकार के मामले में एक ही व्यवस्था में कई सहकारियों की बात चलायी जा सकती है। यदि 'अरुणया' शब्द से यह झलकता है कि वह किसी लाल पदार्थ की ओर संकेत करता है तो यह वाक्य दो विधियों में विभाजित किया जायगा --(१) 'लाल वस्त्र-खण्ड के साथ खरीदना चाहिए' एवं 'एक वर्ष वाली पिंगाक्षी (एकहायनी) के द्वारा खरीदना चाहिए।' किन्तु यह 'वाक्यभेद' नामक दोष कहा जायगा । यह न्याय मदनपारिजात (पृ० ८८-८६) द्वारा व्याख्यापित हो चुका है और अपरार्क ने (पृ० १०३०) में बृहदारण्यकोपनिषद् (४।४।२१ ‘तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिष्टन्ति') के शब्दों के सम्यक अर्थ की व्याख्या में इसका उपयोग किया है और कहा है कि जब सर्वोत्तम उद्देश्य एक हो किन्तु सहायक (गौण) तत्त्व विभिन्न हों तो विभिन्न तत्त्वों को एक में मिला देना चाहिए ।
शब्दों के विषय में एक अन्य नियम है जिसे निषादस्थपतिन्याय (पू० मी० सू० ६।११५१-५२) कहा जाता है। ऐसा आया है कि वह इष्टि, जिसमें भात का हवन रुद्र के लिए होता है, निषादस्थपति के द्वारा सम्पादित होता है। 'निषाद' उस व्यक्ति को कहते हैं जिसका पिता ब्राह्मण हो, किन्तु माता शूद्र (मनु० १०१८)। वह तीन उच्च वर्गों में परिगणित नहीं होता। 'स्थपति' का अर्थ है 'मखिया या नेता'। अब प्रश्न उठता है, क्या इस सामासिक शब्द का अर्थ है 'ऐसा निषाद जो मुख्य (मुखिया) है' (यह कर्मधारय समास है), या इसका अर्थ है 'निषादों का शासक' जो स्वयं निषाद नहीं भी हो सकता है, प्रत्युत क्षत्रिय भी हो सकता है (अर्थात षष्ठी तत्पुरुष समास हो सकता है, यथा--निषादानां स्थपतिः)। निष्कर्ष यह है कि कर्मधारय तत्पुरुष की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली ठहरता है, क्योंकि प्रथम स्थिति में दोनों शब्द क्रिया से सीधे ढंग से सम्बन्धित हैं (निषादश्चासौ स्थपतिश्च, तं याजयेत् ) । व्यवहारमयूख ने इस उक्ति का उपयोग किया है। शौनक स्मृति ने शूद्र को गोद लेने का अधिकार दिया है, किन्तु शुद्धिविवेक के लेखक रुद्रधर ऐसे लोगों ने कहा है कि गोद लेने में मन्त्रों के साथ होम करना होता है और शूद्र वैदिक मन्त्रों का पाठ नहीं कर सकता, अत: वह गोद नहीं ले सकता। इस पर व्यवहारमयूख ने उत्तर दिया है कि शौनकस्मृति द्वारा गोद लेने के अधिकार की स्थापना के उपरान्त केवल इतना ही शेष रह जाता है कि वह किसी ब्राह्मण द्वारा होम करा ले। वेदान्तसूत्र (१।३।१५) के शाकरभाष्य की टीका मामती ने छान्दोग्योपनिषद् (८।३।२) में प्रयुक्त 'ब्रह्मलोक' के अर्थ के विषय में कहा है कि यहाँ निषाद स्थपतिन्याय प्रयुक्त है, अत: 'ब्रह्मलोक' का अर्थ है 'लक्ष्य के रूप में ब्रह्म' न कि 'ब्रह्म का लोक'। मनु० (११।५४) ने पाँच महापातकों में' 'गुर्वङ्गनागमः' (गुरु-पत्नी के साथ मैथुन) को भी गिना है। टीकाकारों ने इस शब्द के अर्थ के विषय में विभिन्न मत दिये हैं। प्रायश्चित्तप्रकरण में भवदेव ने निषादस्थपतिन्याय के आधार पर इस शब्द में कर्मधारय समास (गुरु: या गुर्वी चासौ अंगना च) माना है, जिसका अर्थ हुआ अपनी माता; किन्तु अन्य लोगों ने इसमें तत्पुरुष समास पढ़ा है यथा--'गुरोः या गुरूणाम् अंगना' (जिसमें विमाता, बड़े भाई की पत्नी, गरु की पत्नी आदि सम्मिलित हैं)। देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, पृ० २३-२५, जहाँ इस पर विवेचन उपस्थित किया गया है।
प्रभाकर का कथन है कि कोई शब्द पृथक रूप से अर्थान्वित नहीं होता, किन्तु जब वे किसी वाक्य में एकदूसरे के साथ समन्वित होते हैं तो, अर्थान्वित अथवा अर्थयुक्त हो उठते हैं। इसी से वे और उनके अनुयायी
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