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________________ afare से सम्बन्धित मीमांसा सिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम समान शबर के इस सिद्धान्त को भी अमान्य ठहराया है और दो अन्य व्याख्याएँ उपस्थित की हैं, यथा-सूत्रों से व्यक्त है कि 'पीलु' शब्द का अर्थ है वृक्ष, और म्लेच्छ लोग इसका प्रयोग हाथी के अर्थ में करते हैं । स्मृतियों में इस शब्द का अर्थ है 'वृक्ष' और वही मान्य होना चाहिए । यहाँ पर 'शास्त्रस्था:' का अर्थ है 'शास्त्र अर्थात् स्मृति में शब्द का माना गया अर्थ ।' कुमारिल ने इन सूत्रों में जो अन्य अर्थ देखा है वह है स्मृति एवं आचार की तुलनात्मक शक्ति अथवा सामर्थ्य | 'श्राद्ध' शब्द के मुख्य अर्थ के प्रश्न पर विश्वरूप ने याज्ञ० ( ११२२५ ) की व्याख्या में इस अधिकरण का आश्रय लिया है और कहा है कि श्राद्ध 'पिण्डदान' ( पितरों को भात के पिण्ड देना ) है न कि ब्राह्मणों को भोजन देना । पराशरमाधवीय ने 'आढक' या 'द्रोण' की तोल वाले चावल के पके भोजन के विषय में पराशरस्मृति की ओर संकेत किया है और इस बात की चर्चा की है कि वह किस प्रकार कौओं द्वारा चोंच मारे जाने, कुत्तों द्वारा स्पर्श कर लिये जाने तथा गदहों द्वारा संघ लिये जाने पर अपवित्र हो जाता है और व्यवस्था दी है कि आढक एवं द्रोण की तोल शास्त्रों में वर्णित बातों के आधार पर ली जानी चाहिए, न कि म्लेच्छों में प्रचलित तोल के आधार पर । शब्दों के विषय में एक अन्य नियम (पू० मी० सू० १|३|१० ) यह है कि उन शब्दों को जो मूलतः विदेशी हैं, किन्तु संस्कृत में प्रचलित हो गये हैं, उसी अर्थ में समझा जाना चाहिए जिसका प्रचलन विदेशी भाषा में पाया जाता है, उनकी व्युत्पत्ति के लिए हमें निरुक्त एवं व्याकरण का आश्रय नहीं लेना चाहिए । शबर ने ऐसे चार शब्दों के उदाहरण दिये हैं, यथा-- पिक ( कोकिल), नेम (आधा ), तामरस ( कमल) एवं सत ( वृत्ताकार काष्ठपात्र ) । ' शब्दों के विषय में एक अन्य नियम यह है कि जहाँ कतिपय विशेषताओं से सम्बन्धित कोई एक द्रव्य किसी सम्पादित होने वाले कर्म से सम्बन्धित होता है, तो वहाँ उन सभी विशेषताओं को उसी द्रव्य से सम्बन्धित समझा जाना चाहिए (पू० मी० सू० ३|१|१२ ) । तै० सं० (६।१।१।६-७ ) में व्यवस्था दी हुई है -- ' वह लाल रंग वाली तथा पीली आँख वाली एक वर्षीया बछिया (वत्सतरी या वत्सा) के द्वारा सोम का क्रय करता । यहाँ पर 'पिंगाक्षी' एवं 'एकहायनी' दो शब्दों से व्युत्पत्तिमूलक अर्थ 'टपकता है, दोनों एक प्रकार के कारक में हैं और एक ही पदार्थ ( द्रव्य) की ओर ( यहाँ एक वर्ष वाली बछिया ) निर्देश करते हैं । २० किन्तु 'अरुणया' (लाल रंग वाली ) शब्द एक सन्देह उत्पन्न करता है जो यह है- क्या इसे वाक्य २०. अर्थकत्वे द्रव्यगुणयोरं ककर्म्यान्नियमः स्यात् । पू० मी० सू० ( ३|१|१२ ) ; ज्योतिष्टोमे ऋयं प्रकृत्य श्रूयते । अरुणया पिङ्गाक्ष्यैकहायन्या सोमं क्रीणाति । इति । तत्र सन्देहः । किमरुणिमां कृत्स्ने प्रकरणे निविशेतोत ऋये एवैक हायन्यामिति' । शबर । 'अरुणया क्रीणाति' नामक वाक्य तै० सं० (६।१।१।६-७ ) का है। शबर ने इस पर एक लम्बा विवाद किया है। तन्त्रवार्तिक ( पू० मी० सू० २२२२६) में आया है : 'प्राप्तकर्मणि नानेको विधातु शक्यते 'गुणः | अप्राप्ते तु विधीयन्ते बहवो प्येकयत्नतः ॥ पृ० ४८५ ( मी० न्या० प्र० द्वारा उद्धृत, पृ० ३६, अभयंकर संस्करण) । उदाहरणार्थ, श्राद्ध की व्यवस्था एक विधि के रूप में है, किन्तु यदि कोई श्राद्ध के विषय में कुछ बातें व्यवस्थित करना चाहता है तो प्रत्येक बात के लिए पृथक्-पृथक् विधियों की आवश्यकता पड़ेगी, यथा'गयायां श्राद्धं दद्यात् ' कुतये श्राद्धं दद्यात् । किन्तु जहाँ पहले से ही किसी गुण ( गौण या सहायक बात) की यवस्था के लिए कोई विधि नहीं है, वहाँ पर एक मुख्य विधि होगी जिसमें कतिपय गुणों का समावेश होगा. जैसा कि पू० मी० सू० ( ११४१६) में लिखित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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