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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
१४७ दना जुहोति) या वह यज्ञ का नाम है। कोई भी पदार्थ 'उद्भिद्' के सदश प्रसिद्ध नहीं है (यथा दधि एक विख्यात पदार्थ है)। चित्रा स्त्रीलिंग का बोधक वह पशु है जो चितकबरा होता है । यदि यह गुण विधि है 'चित्र या यजेत्' तो यहाँ वाक्यभेद नामक दोष होगा (दो विधियों को बताने लिए एक वाक्य को तोड़ना) अर्थात् आदेश यह होगा कि एक मादा-पशु की (न कि नर-पशु की) बलि होगी और दूसरी व्यवस्था यह होगी कि उसका रंग चितकबरा होगा। अत: उद्भिद, चित्रा, बलभिद्, अभिजित्, विश्वजित् (कौषीतकिब्रा०२।१४) एवं अग्निहोत्र (पू० भी० सू० ११४१४), वाजपेय (पू० मी० सू० १।४।६-८), वैश्वदेव (पू० मी० सू० १।४।१३-१६) कृत्यों के नाम हैं न कि पदार्थ हैं। इसी प्रकार 'श्यनेनामिचरन् यजेत' (शत्रु की मृत्यु के लिए कोई व्यक्ति अभिचार करता हुआ 'श्येन' नामक याग कर सकता है) में वही बात है। यहां पर 'श्येन' एक याग का नाम है, क्योंकि याग शत्रु पर उसी प्रकार टूट पड़ता है और उसे धर दबोचता है जिस प्रकार श्येन (बाज) पक्षी अपने आखेट (मगया) पर टूटता है और उसे पकड़ लेता है। (षड्विंश ब्रा० ३१८५११३)। बात यह है कि इन नामों का उपयोग, जो कुछ व्यवस्थित किया गया है उसके अर्थ के विशिष्टीकरण के लिए किया गया है। 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' नामक वैदिक वचन उस वेदाध्ययन की व्यवस्था देता है जिसमें यज्ञों के नामधयों के साथ सभी अंग पाये जाते हैं और हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि इस प्रकार की वैदिक विधियों में, यथा 'चित्रया यजेत पशुकामः' में चित्रा यह नाम विधि का एक भाग या अंग है। अत: नामधेय पुरुषार्थ भी है और वेद के अन्य भागों के समान ही प्रामाणिक है (देखिए, जैमिनि २१ पर शास्त्रदीपिका)। ऊपर वर्णित वाक्य में 'याग' की व्यवस्था उद्देश्य के रूप में फल के साथ की गयी है, क्योंकि यह दूसरे रूप से व्यवस्थित नहीं है। यज्ञ के लिए एक सामान्य आज्ञा या आदेश की व्यवस्था नहीं की गयी है, अत: यज्ञ के एक विशिष्ट प्रकार की व्यवस्था कर दी गयी है। यदि कोई 'उद्भिद्' शब्द से किसी व्यवस्थित विशिष्ट प्रकार को जानना चाहता है, तो यह ज्ञात है कि यह उद्भिद् नायक यज्ञ है। धर्मशास्त्र लेखक 'उद्भिद् न्याय' नामक उक्ति का प्रयोग 'उपनयन' के लिए भी करते हैं, जिसका अर्थ है "(लड़के को) आचार्य (वेद के अध्यापक) के पास ले जाना'। संस्कारप्रकाश ने ऐसा ही कहा है।
नार्थ-विचार वैदिक वचनों का पांचवां भाग या वर्ग (या कोटि या श्रेणी) 'प्रतिषेध' (निषेध) है। प्रतिषेधों से मनुष्य के उन उद्देश्यों की पूर्ति होती है जिनसे वह अवाञ्छित फल उत्पन्न करने वाले कर्मों से बचता है अथवा अपनी रक्षा
३६. तत्रोपनयनशब्दः कर्मनामधेयम् । तत्त्व यौगिकमभिवन्यायात् । योगश्च भावव्युत्पत्या करणव्युत्पत्या वेत्याह भारुचिः । स यथा । उप समीपे आचार्यादीनां बटोर्नयनं प्रापणमुपपनयनम् । समीप प्राचार्यादीना नीयते बटुन सदुपनयनमिति वा । संस्कारप्रकाश (पृ. ३३४) ।
४०. अनर्थहेतुकर्मणः सकाशात्पुरुषस्य निवृत्तिकरत्वेन निषेधानां पुरुषार्थानुबन्धित्वम् । तथा हि। यथा विषयः प्रवर्तनामभिदषतः स्वप्रवर्तकत्वनिर्वाहार्थ विधेयस्य यागादेः श्रेयःसाधनत्वमाक्षिपन्तः पुरुषं तत्र प्रवर्तयन्ति, एवं न कलज भक्षयेदित्यादयो निषेधाअपि निवर्तनामभिदधतःस्वनिवर्तकत्वनिर्वाहार्थ निषेधस्य कलञ्जभक्षणादेरनर्थहेतुत्वमाक्षिपन्तः पुरुषं ततो निवर्तयन्ति । मो० न्या० प्र० (पृ० २४८-२४६)। कुछ लोग प्रवर्तनाम् के स्थान पर 'प्रेरणां' पढ़ते हैं । दोनों का अर्थ एक ही है । आप० १० सू० (११५१७२६) ने कलञ्ज, पलाण्ड एवं परारीक का भक्षण निषेध किया है। हरदत्त ने 'कलज' को रक्तलशनम्' कहा है। किन्तु कल्पतरु (नियत काल, पृ० २८०) मे इसे लशुनविशेष माना है।
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