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धर्मशास्त्र का इतिहास
केवल अग्नि-धूम्र दिखाई पड़ता है, ज्वाला नहीं (ते० सं० २।१।२।१०)। अग्नि एवं धूम्र दोनों दिन एवं रात्रि में देखे जाते हैं । इस कथन का तात्पर्य यह है कि दिन में अग्नि का प्रकाश उतना नहीं होता जितना कि रात्रि में (दिन में दूर से उतना नहीं दिखाई पड़ता जितना रात्रि में) ।
___ 'अग्नि हिम (जाड़ा) का भेषज (औषध) है।' (वाज० सं० २३।१० एवं तै० सं० ७।४।१८१२) 'यह कुछ लोगों द्वारा अनुवाद का उदाहरण माना जाता है' मी० बा० प्र० (पृ. ४८) ने इसमें इस बात पर दोष दिखाया है कि यह एक प्रसिद्ध मन्त्र है और वाक्य रचना के विचार से किसी विधि का कोई अंश नहीं है और सिंहाश्रम द्वारा यह वेदाध्ययन के अभाव या अनवधानता के उदाहरण के रूप में ग्रहण किया गया है। एक उचित दृष्टान्त यह है : 'वायु सबसे अधिक शीघ्रगामी देवता है' ( वायुर्वे क्षपिष्ठा देवता , तै० सं० २।११।१)। 'प्रजापति ने स्वयं अपना मांस काट लिया' को कुछ लोगों ने भूतार्थवाद का दृष्टान्त माना है, किन्तु मी० बा० प्र० ने इसे अमान्य ठहराया है और 'यन्न दुःखेन सम्भिन्नम्' को उदाहृत किया है।
कृष्णयज्वश की 'मीमांसा परिभाषा' ने अर्थवाद के चार प्रकार बताये हैं, यथ -निन्दा, स्तुति, परकृति (किसी अन्य महान व्यक्ति द्वारा किया गया हुआ कर्म) तथा पुराकल्प (जो अतीत युगों में घटित हुआ हो३ । देवल का कथन है कि ऋषियों ने पहली बार की त्रुटि के लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था की है,
भेद एवं अर्थ संग्रह (प० २६) में 'इन्द्रो वत्राय वजमुदयच्छत्' को भूतार्थवाद
के दष्टान्त के रूप में ग्रहण किया है और अर्यसंग्रह ने इसे (प्रमाणान्तरविरोध-तत्प्राप्तिरहितार्थ बोधको वादो भतार्थवादः' के रूप में परिभाषित किया है। जब तै० सं० (१७४४ या शा॥३) में 'यजमानः प्रस्तरः' या 'यजमानः यपः' आया है तो इसका शाब्दिक अर्थ हमारे प्रत्यक्ष के विरोध में पड़ता है, अतः वाक्य का अर्थ लाक्षणिक रूप में लेना होगा (यथा जब कि एक लडका 'अग्नि' कहा जाता है), अतः यह गणवाद है, अर्थात 'यजमानः यप का अर्थ है 'वह यूप या स्तम्भ के समान (सीवा) खड़ा होता है और चमकता दीखता है । जब कोई कथन (विधि के रूप में नहीं) न तो अनुवाद होता है और न गुणवाद तो वह विद्यमानवाद या भूतार्थवाद कहलता है । यह शबर द्वारा पृ० मी० स० (१४२३) एवं शंकराचार्य (वे० स० ११३॥३३) द्वारा सुन्दर ढंग से व्याख्यायित हुआ है। इन वचनों की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिए कि प्रत्यक्ष अनभव एवं अन्य प्रमाणों में विरोध न हो और वह किती विधि को (जो पहले से व्यक्त हो) स्तुति के रूप में हो । देखिए भामती' 'न च आदित्यो वै यप इति वाक्यमादित्यस्य यपरवप्रतिपादन परम, अपि तु यपरतुतिपरम'। जिस गण पर बल दिया गया है, वह है तेजस्विता (चमक), क्योंकि यप पर घत लगाया हआ रहता है।
३५. स (अर्थवादः) च चतुविधः निन्दा-प्रशंसा-परकृति-पुराकल्पभेदात् । ... परेणमहता पुरषेणेदं कर्म कृतमिति प्रतिपादकोर्थवादः परकृतिः -यथा अग्निर्वा प्रकामयत--इत्यादिः । परप्रवक्तृकार्थादिप्रतिपादकः पुरा. कल्पः"-यथा तमशपद्धिया धिया त्वा वध्यासुः--इत्यादिः । मो० परि० (पृ. २७-२८)। मेधातिथि ने मनु० (२११५१, जहाँ आङ्गिरस ने अपने पितरों को पठाया और उन्हें 'पुत्रकाः' कहा) की व्याख्या में टिप्पणी दी है-'पूर्वस्य पितृववृत्तिविधेरर्थवादोथं परकृतिनामा' । वायुपुराण (५६।१३४-१३७) ने विधि, स्तुति, निन्दा, परकृति एवं पुराकल्प की परिभाषाएँ दी हैं। न्यायसूत्र (२।११६५) में इन्हीं को अर्थवाद के चार तत्त्वों के माम से उल्लिखित किया गया है। परकृतिपुराकल्पं च मनुष्यधर्मः स्यादर्थाय ह्यनुकीर्तनम् । . . . अर्थवादो वा विधिशेषत्वात्तस्मानित्यानुवादः स्यात् । ३० मी० सू० (६७।२६ एवं ३०) । उस शुनःशेष की कहानी, जिसे
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