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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास कर्ता कहता है-'तुमने स्वयं घोषित किया है कि धार्मिक कृत्यों का सम्पादन वेद का उद्देश्य है' (पू० मी० सू० १।१२)। उपर्युक्त एवं अन्य समान वचन धार्मिक कर्मों के विषय में किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करते, अत: वे निरर्थक हैं और अनित्य हैं (किसी नित्य विषय की ओर संकेत नहीं करते)। इसका उत्तर यह है कि ये वचन वेद के उद्बोधन युक्त वचनों (विधिवाक्यों) के साथ एकरूपता के भाव से सम्बन्धित हैं और उद्बोधनकारी वचनों की महत्ता प्रकट करने का उपयोग सिद्ध करते हैं। शबर ने (१।२७) एक वचन उद्धृत किया है, 'जो समृद्धि का इच्छुक है उसे वायु के सम्मान में श्वेत पशु की बलि देनी चाहिए; वायु तेज चलने वाला देवता है, वह वायु के अनुरूप भाग के साथ उसके पास दौड़ता है; वह (वायु) यजमान को समृद्धि के पास ले जाता है । ये सभी शब्द एक पूर्ण वचन बनाते हैं। प्रथम अंश 'व्यायव्यं.. .भूतिकामः' स्पष्टत: एक विधि है, जैसा कि 'आलभेत' शब्द से प्रकट होता है। बाद वाला अंश केवल महत्ता के गान के लिए एक अर्थवाद मात्र है। लोग जानते हैं कि वाय क्षिप्र गति से चलता है । अत: 'वायुर्वे...आदि' केवल वही दुहराता है जो लोगों को पहले से ज्ञात है (अर्थात् यह एक अनुवाद है)। १०२ के सूत्र १६-२५ में पू० मी० सू० ने कुछ ऐसे वचनों पर विचार किया है जो विधियों-से लगते हैं किन्तु वे अर्थवाद के रूप में घोषित हैं। उदाहरणार्थ, (त० सं० २१११११६) 'यज्ञिय स्तम्भ उदुम्बर की लकड़ी का होना चाहिए; उदुम्बर काष्ठ वास्तव में शक्ति (भोजन या सार) है; पशु शक्ति हैं; इस शक्तिशाली (रसयुक्त) स्तम्भ के द्वारा वह (यजमान) 'शवित की प्राप्ति के लिए' पशुप्राप्ति करता है। विरोध करने वाला कहता है कि यह एक फलविधि (फल के विषय में एक आज्ञा-वचन) है, क्योंकि 'ऊर्जाऽवरुद्धय' शब्दों में उद्देश्य (प्रयोजन) है और श्लाघा (या प्रशंसा या स्तुति) के लिए कोई शब्द नहीं है। इसका उत्तर यह है कि केवल श्लाघा (प्रशंसा या स्तुति) ही है। वेद में कुछ ऐसे वचन हैं जहाँ 'हि' के समान शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है 'क्योंकि' । यथा'अग्नि में आहुति सूप से देनी चाहिए, क्योंकि इसी से अन्न तैयार किया जाता है' (ले० प्रा० ११६॥५) ३३। ३२. आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानयंक्यमतदर्थानां तस्मानित्यमुच्यते (पूर्वपक्ष) । विधिना त्वेकवावयस्वास्तुत्यर्थेन विधीनां स्युः । पू० मी० सू० (१२२११ एवं ७)। ११२१७ को व्याख्या में निमोक्त वचन उद्धत है 'वायव्यं श्वेतमालभेत भूतिकामः । वापूर्व क्षेपिष्ठा देवता वायुमेव स्वेन भागधेयेनोपधावति । स एवंनं भूति गमयति' । यह अर्थवाद (वायुर्व क्षेपिष्ठा देवता) 'वायव्य... लभेत' आदि की विधि का शेष है। यह ते० सं० (२।११।१) में आया है । (१।२।१०) पर भाष्य (गुणवावस्तु) उन वचनों की ओर संकेत करता है जिनके वे तीन वचन, जो १२।१ में उदाहृत हैं, अर्थवाद हैं। उदाहरणार्थ, सोऽरोदोद्यदरोदीत्तद्रस्य व्रत्वम्' नामक वचन बहिषि रजतं न देयं (तै० सं० १३५१।१-२) का एक अर्थवाद है। यह अर्थवाद (सोऽरोदीत् आदि ) 'बहिषि रजतं न देयम्' के प्रतिषेध का शेष है । सूत्र में 'अनित्य' शब्द जानबूझ कर प्रयुक्त किया गया है । वेद नित्य है, अतः वह प्रमाण है । अतः वे वचन जो किसी धार्मिक कृत्य की ओर निर्देश नहीं करते उस अंश से पथक हैं जो कृत्यों से सम्बन्धित है और अनित्य अर्थात् अप्रमाण है। ३३. हेतुर्वा स्यादर्थवत्त्वोपपत्तिभ्याम् । स्तुतिस्तु शब्दपूर्वत्वादचोदना च तस्य । पू० मी० सू० ११२॥ २६-२७; अय ते हेतुवन्नि गदाः शूर्पण जुहोति तेन हान्नं क्रियत इत्येवमादयः । तेषु सन्देहः । किं स्तुतिस्तेषां कार्यनुत हेतुरिति । अस्मत्पले पुनः शूर्प स्तूपये । तेन ह्यन्नं क्रियत इति वृत्तान्तान्वाख्यानं न च वृत्तान्तज्ञापमाय किं तहिरोचनायव । तस्मादेतुवन्निगदस्यापि स्तुतिदेव कार्यमिति । शबर (११२।३०) । वरुणप्रयास (जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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