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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त १४१ यथा-यजति, जुहोति, ददाति, दोग्धि, पिनष्टि । ये सभी दो प्रकार वाले हैं, यथा--प्रधान एवं गुणभूत । वे भाव, शब्द, जिनसे किसी धार्मिक कृत्य के लिए कोई द्रव्य नहीं उत्पन्न होता या उपयुक्त बनाया जाता, प्रधान कर्म के द्योतक होते हैं (यथा-प्रयाज), किन्तु वे भावशब्द, जिनसे द्रव्य उत्पन्न होता है या द्रव्य उपयुक्त बनाया जाता है, गुणभूत कहलाते हैं (यथा -चावल को कूटना, याज्ञिय स्तम्भ बनाने के लिए लकड़ी छीलना या स्रुव को स्वच्छ करना)। क्रियापदों के दो रूप हैं- (१) वे, जिनका रूप केवल यह बताता है कि कर्ता का अस्तित्व है, यथा- 'अस्ति, भवति , विद्यते'; (२) वे रूप , जो न केवल कर्ता के अस्तित्व को बताते हैं, प्रत्युत उनसे यह भी प्रकट होता है कि कृत्य के साथ फल भी है, यथा-'यजति' (यागं करोति), 'ददाति' (दानं करोति), 'पचति' (पाकं करोति), 'गच्छति' (गमनं करोति)। इन विषयों में 'करोति' का भाव छिपा रहता है। जैमिनि (पू० मी० सू० २।११४) ने शब्दों को दो कोटियों में बाँटा है --नामानि (संज्ञाएँ) एवं कर्मशब्दा: (क्रियाएँ) प्रथम के अन्तर्गत शबर ने सर्वनामों एवं विशेषणों को परिगणित किया है। दूसरी कोटि को 'आख्यात' कहा गया है। शबर (२।१।३) ने 'नामानि' का अन्वय 'द्रव्य-गुणशब्दाः' के अर्थ में किया है और टिप्पणी की है कि सूत्र (२।१।३) में 'नामानि' शब्द 'द्रव्यगुणशब्दा:' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । शबर का कथन है कि धात्वर्थ में धर्मों के लिए कोई आकांक्षा नहीं होती । किन्तु प्रत्ययार्थ में विधि के लिए (इतिकर्तव्यता) की आकांक्षा होती है अर्थवाद अब हम वैदिक वचनों (उक्तियों) के दूसरे बड़े विभाजन अर्थात् अर्थवादों का विवेचन उपस्थित करेंगे । इनका निरूपण पू० मी० सू० के प्रथम अध्याय के दूसरे पाद में हुआ है। बहुत-से वैदिक वचन हैं, यथा-'वह गरज उठा (उसने रोदन किया) अत: वह रुद्र कहलाया'. (त० सं० २।११), 'प्रजापति ने स्वयं अपना मांस काटा' (तै० सं० २।१।१।४), 'यज्ञिय भूमि में पहुँच जाने के उपरान्त भी देवों को दिशाओं का ज्ञान नहीं हुआ' (त० सं० ६।१।५।१), 'कोई यह नहीं जानता कि कोई परलोक में रहता है कि नहीं' (तै० सं० ६।१।१।१), 'पृथिवी पर या अन्तरिक्ष में या स्वर्ग में अग्निवेदिका का चयन नहीं होना चाहिए (तै० सं० ५२७।१)। विरोध भ्योऽपूर्व प्रतीयते एष हि धात्वर्थः पदश्रुत्या भावनाकरणत्वेन विधीयते । 'कर्मशब्दाः' का अर्थ है कर्मप्रतिपादकाः । कः पुनर्भावः केते पुनर्भावशन्दा इति । यजति ददाति जुहोत्येवमादायः ।... यजेतेत्येवमादयः साकाडक्षा यजत किं केन कथमिति स्वर्गकाम इत्येतेन प्रयोजनेन निराकाडक्षाः । शबर। अभिधाभावनामाहुरन्यामेव लिंगादयः । अर्थात्मभावना त्वन्या सर्वाख्यातेष गम्यते । तन्त्रवार्तिक (पृ० ३७८); शास्त्रे तु सर्वत्र प्रत्ययार्थो भावनेति व्यवहारः । तत्रायभिप्रायः । प्रत्यार्थ सह ब्रूतः प्रकृतिप्रत्ययौ सदा। प्राधान्याद्भावना तेन प्रत्ययार्थोऽवधार्यते। तन्त्रवा० (१० ३८०) । पाणिनि (३।११६७) के वार्तिक (२) पर महाभाष्य में एक नोतिवाक्य (कहावत) है : 'प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थ सहब्रूतः' और शबर ने इसे आचार्योपदेशः कहा है (३।४।१३, पृ० ६२२)। पाणिनि ने कालों एवं क्रियापद की अवस्था बताने वाले पदों के लिए विशिष्ट पारिभाषिक नाम दिये हैं और अर्थ को व्यक्त करनेवाले शब्दों का प्रयोग नहीं किया है, यथा वर्तमानकाल, अतीतकाल या भविष्यत्काल। वे 'ल' से आरम्भ होते हैं अतः लकार कहे जाते हैं । वे इस प्रकार हैं-लट् (वर्तमान), लेट (वैदिक क्रिया का संशयार्थक रूप), लिट् (परोक्ष लिट), लुङ , लडा (अनद्यतनभूत), लि, लोट, लुट्, लट्, लङ । भावार्थाः कर्मन्दाः की प्रतिध्वनि निरुक्ति (१११) भावप्रधानमाख्यातम् में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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