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gantier के कुछ मौलिक सिद्धान्त
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आदि) स्रष्टा के पूर्व से ही उपस्थित थे, और फिर भी जिस प्रकार हमलोगों के पूर्व वेद का अस्तित्व था, उसी प्रकार वेद के पूर्व बुद्धिमान होने के कारण स्रष्टा का होना ( अनुमान द्वारा) सिद्ध किया जा सकता है। यह द्रष्टव्य है कि सृष्टि एवं प्रलय के विषय में मीमांसा का दृष्टिकोण महाभारत एवं गीता ( १०१८ ) दृष्टिकोण से मित्र है ( अहं सर्वस्य प्रभावो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ) ।
( ६ ) अपूर्व का सिद्धान्त : वेद में आया है कि स्वर्गेच्छुक को यज्ञ करना चाहिए। किन्तु स्वर्ग की फलप्राप्ति बहुत दिनों के उपरान्त होती है और यज्ञ थोड़े काल में ही समाप्त हो जाता है । अतः यज्ञ (कारण) एवं स्वर्ग (फल) या उद्देश्य के बीच कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रहता । वेद की आज्ञा से यह मान लेना चाहिए कि मनुष्य के यज्ञ सम्पादन सम्बन्धी कर्म एवं फल के बीच कोई जोड़ने वाली कड़ी है। इसके पूर्व कि यज्ञ में प्रमुख एवं गौण कर्म किये जायें, मनुष्यों के पास स्वर्ग के लिए कोई सामर्थ्यं नहीं है और यज्ञ भी स्वर्ग को उत्पन्न करने में असमर्थ हैं। किसी यज्ञ में प्रमुख एवं गौण कर्म जब सम्पादित होते हैं तो वे असमर्थता को दूर करते हैं और स्वर्ग के लिए किसी शक्ति की उत्पत्ति करते हैं। ऐसा सभी को अवश्य मान लेना चाहिए। यदि ऐसी समर्थता न पायी जाय तो एक अंगीकार न किये जाने वाला निष्कर्ष उत्पन्न होगा कि कर्मों का सम्पादन एवं उनका असम्पादन एक ही स्तर पर हैं। यह समर्थता या शक्ति जो या तो मनुष्य (कर्ता) में होती है या सम्पादित यज्ञ - से उत्पन्न होती है, शास्त्र में अपूर्व नाम से घोषित है। यह सत्य है कि इस समर्थता की सिद्धि प्रत्यक्ष ज्ञान से नहीं हो सकती, केवल श्रुतार्थापत्ति' से ही इसे हम सिद्ध कर सकते हैं। जब हमसे कोई यह कहता है कि एक मोटा व्यक्ति दिन में नहीं खाता है तो हमें यह मान लेना होता है कि वह रात्रि में अवश्य खाता होगा। इमी प्रकार, वेद
सूक्ष्म शक्ति की प्राप्ति होती है, यद्यपि स्वर्गफल को उत्पन्न करने का कारण है। रूप में मान सकते हैं । मीमांसक लोग
यज्ञ एवं स्वर्ग दोनों को लाता है; हमें यह मान लेना है कि यज्ञ से हमें स्वयं यज्ञ कुछ काल के उपरान्त स्वयं समाप्त हो जाता है और यह शक्ति और हम उसे यजमान के आत्मा में अवस्थित या एक अदृश्य प्रभाव के यह नहीं स्वीकार करते कि धार्मिक कर्मों के फल ईश्वर द्वारा दिये जाते हैं । वे० सू० ( ३ |२| ४० ) का कथन है। कि यह जैमिनि का दृष्टिकोण है (धर्म जैमिनिरत एष) और यह बादरायण, शंकर एवं मामती के इस मत का विरोधी है कि ईश्वर ही फल देने वाला है। प्रकरणपञ्चिका ( पृ० १८६ ) के मत से अदृश्य शक्ति कर्ता नहीं है। प्रत्युत वह स्वयं कर्म से सूक्ष्म रूप में उत्पन्न होती है । माघवाचार्य द्वारा दर्शपूर्णमास यज्ञ के विषय में अपूर्व के चार प्रकार कहे गये हैं (अपूर्व के अन्य उप प्रकार भी कहे गये हैं) ।
भावना यह है कि प्रत्येक कृत्य एक अपूर्व की उत्पत्ति करता है और कृत्य के प्रत्येक अंग का एक अपूर्व होता है जो सम्पूर्ण कृत्य के अपूर्व का छोटा रूप होता है ।
तन्त्रवार्तिक ने अपूर्व नाम की व्याख्या की है । यज्ञ-सम्पादन के पूर्व अदृश्य शक्ति का अस्तित्व नहीं था, इसका प्राकट्य यज्ञ सम्पादन के उपरान्त ही एक नवीन शक्ति के रूप में होता है, अतः इसका अर्थ केवल यौगिक है ।
११३-११७) । बुद्ध को सर्वज्ञ कहा गया था, जैसा कि अमरकोश में आया है : 'सर्वज्ञ सुगतो बुद्धों' आदि । न्यायरत्नाकर में श्लोक ११३-११४ पर टिप्पणी हुई है : 'यथा च बुद्धादेः सर्वज्ञत्वं पुरुषत्वादस्मदादिवन्निषिद्धम्, एवं प्रजापतेरपि स्रष्त्वं निषेध्यमित्याह सर्वज्ञवदिति । तेन वं वप्रभावकथनार्थीयं सृष्टिप्रलयवादः । समस्त पुरुषकाराभावऽपि सृष्टिकाले देववशेनैव सर्वं प्रवर्तते, प्रलयकाले च सत्यपि पुरुषकारे देवोपरमादेवोपरमिति तस्माद्धर्मानुष्ठान एव यतितव्यमित्येतत्परं सृष्टिप्रलय वचनमिति । न्या० ट० ( श्लोकवातिक, सम्बन्धक्षेपपरि०, श्लोक ११२ ) ।
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