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________________ १२२ धर्मशास्त्र का इतिहास कर अग्नि को हवि देना चाहिए ) ; देवता यों ही यज्ञ से नहीं सम्बन्धित हो जाता, प्रत्युत किसी हवि के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द से वह सम्बन्धित होता है । और जहाँ वेद के निर्देश के अनुसार अग्नि को हवि दिया जाता है वहाँ अग्नि के अन्य पर्याय शब्दों का प्रयोग नहीं किया जा सकता, यथा - शुचि, पावक, धूमकेतु, कृशानु, वैश्वानर या शाण्डिल्य । अतः देवता शब्दों का ही विषय है, जैसा कि शबर का मत है । प्रकरणपञ्चिका का भी कथन है कि इसके विषय में कोई प्रमाण नहीं है कि याग ऐसा साधन है जिसके द्वारा देवता को प्रसन्न किया जाता है, यदि ऐसा कहा जाय कि याग में देवता की पूजा होती है, तो यह केवल लाक्षणिक प्रयोग मात्र है । इससे और पूर्ववर्ती सिद्धान्त से यह निष्कर्ष निकलता है कि पू० मी० सू०, शबर एवं कुमारिल ने इस बात को अस्वीकार कर दिया है कि वेद ईश्वर का शब्द है या धार्मिक कृत्यों के फल ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त होते हैं । इसी से पद्मपुराण ( ६ | २६३।७४ - ७६ ) ने जैमिनि को निरीश्वरवादी कहा है । यदि वेद यह कहता है कि 'स्वर्ग की इच्छा करने वाले को याग करना चाहिए' तो इससे तीन आकांक्षाएँ उत्पन्न होती हैं । प्रथम आकांक्षा है- क्या प्राप्त करना है ? इसका उत्तर है 'स्वर्ग' जो याग का फल या उद्देश्य है । दूसरी आकांक्षा है-किन साधनों से? जो प्रथम है, जिसे प्राप्त करना है, वह 'यज' धातु से प्राप्त होता है । तीसरी आकांक्षा है-कौन सी विधि है या किस विधि से ? और इसे पवित्र अग्नियों की संस्थापना से तथा उन कृत्यों द्वारा, जो वचन के संदर्भ में उल्लिखित हैं, प्राप्त किया जाता है, वचन से यह ज्ञात होता है कि फल या उद्देश्य ( स्वर्ग ) याग से प्राप्त होता है देवता से । I ( स्वर्गकामो यजते ) । इस ( उत्पन्न होता है ) न कि यज्ञों में देवताओं के विषय में पश्चात्कालीन लेखक इन विचारों को नहीं अपना सके । वेंकटनाथ ( या वेंकटदेशिक, १२६६ - १९३६६ ई०) ने 'सेश्वरमीमांसा' नामक ग्रन्थ लिखा, जिसमें उन्होंने भट्ट एवं प्रभाकर दोनों सम्प्रदायों की आलोचना की है और कट्टर रामानुजी वैष्णव होने के कारण उन्होंने दोनों मीमांसाओं का समन्वय उपस्थित करने का प्रयत्न किया है और शबर, कुमारिल, शालिकनाथ आदि के सम्मिलित साक्ष्य के विरोध में यज्ञों के सम्पादन से उत्पन्न फल के दाता के रूप में ईश्वर को माना है । देखिए डा० राधाकृष्णन की 'इण्डियन फिलॉसॉफी' जिल्द २ ( पृ० ४२४ - ४२६), जहाँ पूर्वमीमांसा के मतानुसार ईश्वर एवं लोक पर विवेचन उपस्थित किया गया है । (५) अखिल विश्व की न तो वास्तविक सृष्टि होती है और न विनाश : आधारभूत तत्त्व या अंग तो आते-जाते रहते हैं किन्तु विश्व का न तो आरम्भ है और न अन्त। सृष्टि एवं प्रलय का वर्णन तो देव ( भाग्य या नियति) की शक्ति एवं मानव प्रयत्न की निस्सारता प्रदर्शित करने का साधन मात्र है और वेदविहित कर्तव्यों को करने के लिए उद्बोधन मात्र है। बिना किसी मानव प्रयास के लोक उत्पन्न हो सकता है और सभी प्रयासों के रहते हुए भी इसका ( लोक का) विलयन भी हो सकता है। विश्व वास्तविक और सदा रहा है तथा सभी समयों में चलता रहेगा । देखिए श्लोकवार्तिक ( ५।११२ - ११७ ), प्रकरणपञ्चिका ( पृ० १३७ - १४० ) एवं न्यायरत्नाकर । श्लोकवार्तिक में यहाँ तक कहा गया है - 'यह निश्चित रूप से मान लेना चाहिए कि ये सब (लोक ६. तरमादद्यवदेवात्र सर्गप्रलयकल्पना । समस्तक्षयजन्मभ्यां न सिध्यत्य प्रमाणिका ।। सर्वज्ञवन्निषेध्या च अष्टुः सद्भावकल्पनां । । तस्मात् प्रागपि सर्वेऽमी स्रष्टुरासन् पदादयः । स्यात्तत्पूर्वकता चास्य चैतन्यावस्मवादिवत् ॥ एवं ये युक्तिभिः प्राहुस्तेषां दुर्लभमुत्तरम् । अन्वेष्यो व्यवहारोयमनादिर्वेदवादिभिः ॥ श्लोकवा० ( सम्बन्धाक्षेप० श्लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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