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________________ मीमांसा एवं धर्मशास्त्र ११६ ग्रन्थ है और यह प्रभाकर के ग्रन्थों एवं उन पर शालिकनाथ की टीकाओं के विषय में उपयोगी बातें बताता है। प्रबोध चन्द्रोदय (अंक २) ने गुरु, कुमारिल (या तौतातित), शालिकनाथ एवं वाचस्पति का उल्लेख करने के उपरान्त महोदधि एवं महाव्रती ( महाव्रता की कृति) का उल्लेख किया है, जो नयविवेक द्वारा वर्णित हैं (पृ० २७१ एवं २७३)। प्रभाकर एवं कुमारिल में बहुत सी बातों को लेकर वैभिन्न्य है३२ पू० मी० सू० के प्रथम सूत्र से ही दोनों के विवाद का आरम्भ हो जाता है33 । शालिकनाथ ने प्रकरणपञ्चिका में कई स्थानों पर प्रभाकर को गरु कहा है। कमारिल भटट एवं प्रभाकर के पारस्परिक काल की स्थिति के विषय में कई मत पाये जाते हैं । देखिए म० म० गंगानाथ झा कृत 'प्रभाकर सम्प्रदाय' (१६११), ए० बी० कीथ की 'कर्ममीमांसा' (१६२१) द्वितीय अखिल भारतीय ओरियण्टल कान्फ्रेंस (पृ० ४०८-४१२) एवं तृतीय अखिल भारतीय ओरिएण्टल कान्फ्रेंस (पृ० ४७४-४८१) तथा जे० ओ० आर० (मद्रास, जिल्द १, पृ० १३१-१४४ एवं २०३-२१०) । प्रो० कुप्पुस्वामी ने ही दोनों कान्फ्रेंसों का विवरण प्रकाशित किया है। प्रश्न यह उपस्थित है कि शालिकनाथ प्रभाकर के एक साक्षात शिष्य थे या उनके पश्चात्कालीन अनयायी मात्र थे । कई बातों के आधार पर प्रस्तुत लेखक के मत से शालिकनाथ प्रभाकर के सीधे शिष्य से लगते हैं । शालिकनाथ ने न केवल 'प्रभाकर गुरु' कहा है, प्रत्युत एक ३२. देखिए बनारस हिन्दू यूनिवसिटी का जर्नल (जिल्द २, पृ० ३०६--३२५), जहाँ प्रभाकर एवं कुमारिल भट्ट के अन्तरों को संस्कृत में एकत्र किया गया है, विशेषतः पृ० ३३१-३३५ जहाँ अन्तरों की तालिका उपस्थित की गयी है। और देखिए पं० वी० ए० रमास्वामी शास्त्री द्वारा तत्त्वबिन्दु पर उपस्थित भूमिका (१६३६, पृ० ३७४०), जहाँ दोनों के कुछ महत्त्वपूर्ण अन्तर व्यक्त हैं। ३३. भट्ट अर्थात् कुमारिल भट्ट सम्प्रदाय के अनुसार पू० मी० सू० (१११११) का विषयवाक्य' शतपय (११॥५॥६) में 'स्वाध्यायोऽध्यतव्यः' तथा तैत्तिरीय आरण्यक (२॥१५॥१) में 'एतस्मात्स्वाध्यायोऽध्येतव्यो यं यं ऋतुमधीते तेन सेनास्यष्टं भवतीति' है। प्रभाकर सम्प्रदाय के अनुसार विषय-वाक्य है-'अष्टवषं ब्राह्मणमुपनयीत तमध्यापयोत', जिससे प्रकट होता है कि वेदाध्ययन उपनयन के उपरान्त विद्यार्थी को पढ़ाने की विधि का एक अंग मात्र है। विषयवाक्य (स्वाध्यायोऽध्येतव्यः) के विरोध में प्रभाकर सम्प्रदाय का विरोध यह है कि इसमें एक देखा हुआ फल है और जब जाना हुआ (देखा हुआ) फल पाया जाता है तो यह कहना कि बिना देखा हुआ फल है, अनुचित है। देखिए इस महाग्रन्थ को जिल्द ३, पृ० ८३७, जहाँ शबर तथा अन्य लोगों के कतिपय वचन इस कथन के विषय में उदाहृत हैं। एकादशीतत्त्व (१.० ८८-८६, मन्त्र पर) ने पू० मी० सू० (३।२।१) को उद्धृत करने के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला है-'इति दृष्टार्थसम्पत्तौ नादृष्टमिह कल्प्यते इति'। प्रस्तुत लेखक को यह 'नहीं ज्ञात हो सका है कि किस वैदिक ग्रन्थ से 'अष्टवर्ष.....पयोत' ग्रहण किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह दृष्टिकोण कि इस वचन में वेद के अध्यापन की विधि है केवल मन (२११४०, ३१२) एवं गौतम (१।१०११) के वचनों से अनुमान निकाला गया है। प्रकरणपञ्चिका (पृ०६) ने इसे माना हैः ‘कः पुनराचार्यकरणविधिः 'उपनीय....प्रचक्षते' (मनु २।१४०) इति स्मरणानुमितः । इस मत से उपनयन केवल अध्यापन विधि का एक अंग है। पद्मपाद (गवर्नमेण्ट ओरिएण्टल सीरीज, मद्रास, १६५८, दो टीकाएँ भी साथ प्रकाशित हैं) को पञ्चपाविका के पृष्ठ २२५ पर इस विषयवाक्य ('अष्टवर्ष.. पयोत') को कटु आलोचना दी हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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