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________________ ११० धर्मशास्त्र का इतिहास और कतिपय स्थलों पर उन्हें सम्मानपूर्वक उद्धृत किया है ( यथा -- २।१।३२ एवं ३२, २/२/२६, २।३।१६, ३।१।६ पर 'अत्र भगवान् वृत्तिकारः कहा है; कहीं-कहीं यथा ८|१|१ पर 'वृत्तिकारैः बहुवचन में आया है ) । पू० मी० सू० १ १ ३ - ५, २०१३३ । एवं ७ २२६ की टीका में शबर ने वृत्तिकार से असहमति प्रकट की है । पू० मी० सू० की सबसे प्राचीन विद्यमान टीका शबर का भाष्य है । शबर ने पू० मी० सू० के विषयों से तथा कुछ अन्य विषयों से सम्बन्धित बहुत से श्लोक उद्धृत किये हैं । पू० मी० सू० पर उद्धृत श्लोक २।१।३२, २।१।३३, २।२।१, ४।३।३, ४।४।२१, ४ । ४ । २४ आदि पर पाये जाते हैं । ये सभी श्लोक शबर द्वारा पू० मी० सू० की किसी टीका या उस पर लिखे गये किसी ग्रन्थ से उद्धृत हुए हैं, जिनमें दो-एक सम्भवतः किसी श्रौतसूत्र से लिये गये हैं और दो-एक स्वयं उनके द्वारा प्रणीत हैं । पू० मी० सू० पर बहुत-सी टीकाएँ १०वीं तथा उसके पश्चात् की शतियों के लेखकों की हैं और वे आज भी विद्यमान हैं, जिनमें २२ का उल्लेख म० म० गोपीनाथ कविराज ने किया है ( सरस्वतीभवन स्टडीज, जिल्द ६, पृ० १६६) । शबर के भाष्य पर कतिपय टीकाएँ हैं, जैसा कि श्लोकवार्तिक से प्रकट है । कुमारिल के पूर्व की प्रणीत टीकाएँ आज उपलब्ध नहीं हैं । कुमारिल ने शबर के भाष्य ( पू० मी० सू० १११ । ) पर श्लोकवार्तिक लिखा जिसमें ४००० श्लोक हैं तथा १।२ पर पू० मी० सू० के तीसरे अध्याय के अन्त तक एक विशद तन्त्रवार्तिक लिखा है और पू० मी० सू० (अध्याय ४ - १२) पर टुप्-टीका लिखी है (जो छिट-पुट टिप्पणी के रूप में है न कि लगातार चलने वाली टीका ) । ऐसा कहा जाता है कि कुमारिल ने पू० मी० सू० पर दो अन्य टीकाएँ भी लिखी हैं ; यथा--' मध्यमटीका' एवं बृहट्टीका । न्यायरत्नाकर ने बृहट्टीका का उल्लेख किया है, तन्त्रवार्तिक पर न्यायसुधा ने इससे कई श्लोक उद्धृत किये हैं तथा ऋषिपुत्र परमेश्वर के जैमिनीय सूत्रार्थं संग्रह ने बृहट्टीका को कई बार उद्धृत किया है । श्लोकवार्तिक पर दो टीकाएँ अब तक प्रकाशित हुई हैं, यथा-- पार्थसारथि का न्यायरत्नाकर एवं सुचारित मिश्र की काशिका । तन्त्रवार्तिक के अंग्रेजी अनुवाद में म० म० डा० गंगानाथ झा ने उस की आठ टीकाओं का उल्लेख किया है, जिनमें न्यायसुधा या सोमेश्वर का राणक बड़ी विशद है, अन्य टीकाएँ अभी पाण्डुलिपियों के रूप में ही हैं । टुप्टीका की कई टीकाएँ हैं जो अभी अप्रकाशित हैं । पार्थसारथि मिश्र के तन्त्ररत्न में पू० मी० सू० के कुछ अध्यायों के विषयों पर चर्चा है । शबर के भाष्य पर प्रभाकर नो 'बृहती' नामक एक टीका लिखी है, तर्कपाद ( पू० मी० सू १1१ ) पर उसका कुछ अंश शालिकनाथ मिश्र की ऋजुविमलापञ्चिका की टीका के साथ पं० एस० के० रमानाथ शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित हुआ है ( १६३४) । पार्थसारथि की शास्त्रदीपिका पू० मी० सू० पर कोई नियमित टीका नहीं है, किन्तु यह उस पर एक अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और कुमारिल के मतों को स्वीकार करता है । एक अन्य अति उपयोगी ग्रन्थ है माधवाचार्यकृत जैमिनीय न्याय माला-विस्तार ( आनन्दाश्रम प्रेस, पूना), जो पू० मी० सू० के पद्य में निष्कर्ष उपस्थित करता है; उसमें गद्य में आलोचना भी है और प्रभाकर (शालिकनाथ आदि द्वारा 'गुरु' नाम से घोषित ) का कुमारिल से अन्तर प्रकट किया गया है । शालिकनाथ ने स्वतन्त्र रूप से प्रकरणपञ्चिका नामक ग्रन्थ लिखा है । प्रभाकर के सम्प्रदाय का एक अन्य ग्रन्थ भी है जो भवनाथ या भवदेव लिखित है और नवविवेक नाम से प्रसिद्ध है ( पं० एस० के० रमानाथ शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित, १६३७ ) । व्यवहार पर लिखित मदनरत्नप्रदीप द्वारा भवनाथ प्रशंसित हैं और प्रभाकर के सिद्धान्त रूपी कमल के सूर्य कहे गये हैं । रामानुजाचार्य का तन्त्र रहस्य, जो लगभग १७५० ई० में प्रणीत हुआ है, प्रभाकर सम्प्रदाय का अन्तिम महत्वपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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