SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास पूर्व मीमांसा सूत्रों में आलेखन (६।५।१७), ऐतिशायन (३।२।४४, ३।४।२४, ६।१।६), कामुकायन (११।१।५८ एवं ६३) एवं लावुकायन (६७।३७) के नाम आये हैं, जो वेदान्त सूत्रों द्वारा उल्लिखित नहीं हुए हैं। दूसरी ओर वे० सू० ने औडुलोमि (१।४।२१, ३।४।४५, ४।४।६) एवं काशकृत्स्न (१।४।२२) के नाम लिय हैं, जो पू० मी० सू० में नहीं आये हैं। पू० मी० सू० ने बहुत कम कुछ आचार्यों की ओर ‘एके' कहकर निर्देश किया है (यथा--१।१।२७ एवं ६।३।४); वे० सू० में 'एके' १४६ एवं १८, २।३।४३, ३।२।२ एवं १३, ३।४।१५, ४।२।१३ में तथा 'एकेषाम्' १।४।१३, ४।१।१७, ४।२।१३ में तथा 'अन्ये' ३।३।२७ में आये हैं और इन सभी संकेतों में वेद या उपनिषदों के सभी पाठान्तरों की ओर निर्देश हैं, किन्तु ३।४।४२ में 'एके' 'आचार्यों की ओर तथा ३।३।५३ में एके' 'लोकायतिकों' की ओर संकेत करता है। व्यास या पाराशर्य पूर्वमीमांसासूत्र एवं वेदान्तसूत्र में नाम से व्यक्त नहीं हैं। बादरि के विषय में विचार कर लेना आवश्यक है। पू० मी० सू० ने बादरायण एवं जैमिनि को पाँच बार उल्लिखित किया है, किन्तु उसने एवं वे० सू० ने बादरि को चार बार उल्लिखित किया है। बादरि ने जैमिनि से दो महत्त्वपूर्ण बातों पर विरोध प्रकट किया है, यथा--'शेष' शब्द के अर्थ अथवा उपलक्षण के विषय में तथा इस महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण उपस्थित करने में कि शूद्रों को भी अग्निहोत्र एवं अन्य वैदिक कृत्यों के सम्पादन करने का अधिकार है। वे० सू० में बादरि को वैश्वानर की उपासना (छान्दोग्योपनिषद् ५।१८।१-२) के विषय में जैमिनि से विरोध करते हुए दर्शाया गया है तथा ‘स एनान् ब्रह्म गमयति' (छा० उप० ४।१५।५) पर तथा वे०स (४४१०) में बादरि को मुक्त आत्मा के विषय में जैमिनि के विरोध में कहते हुए प्रकट किया गया है। उपयुक्त बातों से प्रकट होता है कि पू० मी० सू० एवं वे० स० के समक्ष बादरि का कोई ग्रन्थ उपस्थित था, जिसमें पूर्वमीमांसा तथा वेदान्त-सम्बन्धी बातें लिखित थीं । आलेखन एवं आश्मरथ्य को आपस्तम्बर कम-से-कम १६ बार उद्धत किया गया है और यज्ञों के कृत्यों पर उनके मतों का प्रकाशन किया गया है और विरोध भी प्रकट किया गया है तथा आप० श्रौ० स० में केवल इन्हीं दो लेखकों की बातों की ओ यह सम्भव है कि आत्रेय, आश्मरथ्य एवं कार्णाजिनि ने पूर्वमीमांसा एवं वेदान्त पर किसी ग्रन्थ या ग्रन्थों का प्रणयन किया हो और औडलोमि (वे० स० द्वारा तीन बार उद्धत) एवं काशकृत्स्न ने वेदान्त पर ग्रन्थ लिखे हों। ... उपर्युक्त विवेचन से यह सत्यभासक-सा प्रतीत होता है कि गीता (१३।४) का 'ब्रह्मसूत्रपदैः' शब्द बादरि, औडलोमि, आश्मरथ्य एवं एक या दो अन्य लेखकों के सूत्र-ग्रन्थों की ओर निर्देश करता है, न कि उपस्थित ब्रह्मसूत्र की ओर। ऐसा कोई नहीं कह सकता कि बादरि एवं आत्रेय 'ऋषि' नहीं हैं। शबर ने आत्रेय को मुनि कहा है (पूर्वमीमांसासूत्र, ६।१।२६ की व्याख्या में)। इस्मरणीय है कि जैमिनि, बादरि एवं बादरायण गोत्रनाम हैं । व्यास गोत्रनाम नहीं है और पाराशर्य पराशरों के दल के तीन प्रवरों में एक प्रवर है।' ___ आप० श्री० सू० (२४।८।१०, गार्वे द्वारा सम्पादित) एवं प्रवरमञ्जरी (छेन्त्सलाव, मैसूर, १६००, ५० ६१) ने बादरायण को विष्णुवृद्ध गोत्र का एक उपवर्ग (उपदल) माना है, किन्तु प्रवरमञ्जरी ने पृ० ३८ पर जैमिनि को यास्क, वाधल, मौन एवं अन्यों के साथ 'भार्गव-वैतहव्य-सावतसेति' प्रवर वाला माना है तथा पृ० १०८ १३. अथ पाराशराणां न्यायः । वसिष्ठ-शाक्त्य-पाराशर्येति । पराशरवच्छक्तिवद्वसिष्ठवदिति। आप० श्री० सू० (२४११०१६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy