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________________ ६६ धर्मशास्त्र का इतिहास उन्होंने वेदव्यास का श्लोक वेदान्तसूत्र के इस समर्थन में उद्धृत किया है कि वेद नित्य है । वे० सू० (२|३| ४७) पर इसके समर्थन में कि यद्यपि आत्मा परमात्मा का ही अंश है तथापि परमात्मा आत्मा द्वारा पाये जाते हुए कष्ट से दुखी नहीं होता, शंकराचार्य ने महाभारत से दो दलोक स्मृति के समान उद्धृत किये हैं । इससे यह प्रकट है कि यदि वेदान्तसूत्र के प्रणेता एवं वेदव्यास एक ही व्यक्ति होते तो शंकराचार्य उदाहरण रूप में वेदव्यास के वचन उद्धृत नहीं करते, यदि वे ऐसा करते भी तो यही कहते कि इस लेखक ऐसा एक स्थान पर और कहा है, आदि। यही तर्क शंकराचार्य की आलोचनाओं के विषय में भी दिया जा सकता है । यदि महान् आचार्य का यही मत था कि वेदान्तसूत्र के लेखक वे ही महोदय थे जिन्होंने महाभारत एवं गीता का प्रणयन किया है तो वे महाभारत एवं गीता से उद्धरण देकर वे० सू० के तर्क का समर्थन न करते । यदि यह कहा जाय कि जैमिनि केवल एक ही थे ( दो नहीं, तीन की बात तो दूर है) तो एक बड़ी गम्भीर समस्या उठ खड़ी होती है । पू० मी० सू० ( जिसमें २७०० सूत्र हैं) के लेखक ने अपने दृष्टिकोणों की ओर अपने नाम से, और वह भी केवल पाँच बार ही क्यों संकेत किया है ? कुछ टीकाकारों ने ऐसा कहा है कि पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती लेखकों के नाम आदर व्यक्त करने के लिए उल्लिखित किये हैं, तो क्या यह समझा जाय कि जैमिनि ने भी ऐसा किया है ? यदि वे अपना नाम हो लेना चाहते थे तो केवल पाँच ही बार क्यों लिया ? स्पष्ट है, उन्होंने अपने किसी पूर्ववर्ती व्यक्ति की ओर संकेत किया है, जिनका नाम संयोग से जैमिनि ही था और जिन्होंने अपने मत किसी ग्रन्थ में व्यक्त किये थे । वेदान्तसूत्र में ११ सूत्र ऐसे हैं जिनमें जैमिनि के दृष्टिकोणों की ओर निर्देश किया गया यथा-१।२।२८ एवं ३१, १/३/३१, १।४।१८, ३१२१४०, ३।४।२ ३ ४ १८, ३ ४ | ४०, ४।३।१२, ४।४।५, ४|४|११| इनमें ६ संकेत ऐसे हैं (१।२।२८, १/२/३१, १|४|१८, ४ | ३ | १२, ४/४/५, ४|४|११ ), जिनके लिए पू० मी० सू० का कोई अधिकरण या पुत्र नहीं दिखाया जा सकता । किन्तु ३ |२| ४० ३।४।२, ३।४।१८ नामक सूत्र ऐसे हैं जो पू० मी० सू० के विख्यात सिद्धान्त हैं । वे० सू० १।३।३१ पू० मी० सू० ६।१।५ है तथा ३ | ४ |४० में जैमिनि वे० सू० से मिलते हैं । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि उन जैमिनि ने, जो शुद्ध रूप से वेदान्त-सम्बन्धी विषयों पर अपने मत प्रकाशित करते हैं और जिनके दृष्टिकोण पू० मी० सू० में नहीं पाये जाते, वेदान्त पर कोई ग्रन्थ लिखा था । वेदान्तसूत्र के सूत्रों में बादरायण के नाम आये हैं, यथा १|३|२६ एवं ३३ ( एक ही अधिकरण में बादरायण जैमिनि के विरोध में दो बार उल्लिखित हैं), ३।२।४१, ३।४।१, ३४१८, ३|४|१६, ४ | ३ | १५, ४ ४ ७, ४|४|१२| यह अवलोकनीय है कि ४।३।१५ को छोड़कर सभी में बादरायण के मत जैमिनि से पृथक् है या थोड़ा अन्तर रखते हैं ( ४ । ४ । ७ एवं ४ । ४ । १२ ) । प्रो० नीलकण्ठ शास्त्री का विचार है कि वे सभी दृष्टिकोण जो बादरायण के कहे गये हैं, वेदान्त पुत्र के लेखक के ही मत हैं, जिन्होंने अपने लिए प्राचीन लेखकों के समान अन्यपुरुष का प्रयोग किया है ( इण्डि० ऍण्टी०, जिल्द पृ० ५०, पृ० १६६ ) । इस विचार से यह नहीं ज्ञात हो पाता कि वेदान्तसूत्र ( जिसमें ५५५ सूत्र हैं) के लेखक की ही स्थिति को दृढ करने के लिए बादरायण का नाम ६ बार लेना क्यों आवश्यक माना गया ? यदि वे० सू० के लेखक एवं ६ बार उल्लिखित बादरायण एक ही व्यक्ति थे तो बादरायण का नाम सामान्यतः अधिकरण के अन्त में आता न कि मध्य में । उदाहरण व्यक्त करते हैं कि यद्यपि बादरायण एवं वे० सू० के लेखक का अन्तिम निष्कर्षं एक ही है, किन्तु भाषा एवं तर्क भिन्न हैं, वेदान्तसूत्र में उल्लिखित बादरायण प्रस्तुत वेदान्तसूत्र के लेखक से पहले हुए थे और उन्होंने वेदान्त पर कोई ग्रन्थ लिखा था, जिसका समर्थन वेदान्तसूत्र अपने तर्कों से करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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