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________________ मीमांसा एवं धर्मशास्त्र वे. सू० (३।४।४०) की व्याख्या में शंकराचार्य ने जो वक्तव्य दिये हैं, उनसे प्रकट होता है कि वे बादरायण को वेदान्तसूत्र का लेखक मानते हैं । वे० सू० (३।२।३८-३६) में सिद्धान्त आया है कि कर्मों का फल ईश्वर द्वारा दिया जाता है, किन्तु जैमिनि का विचार (दृष्टिकोण) यह है कि कर्मों का फल धर्म होता है (३।२।४०) और सूत्र ३।२।४१ में ऐसा आया है कि बादरायण प्रथम बात मानते हैं, अर्थात् ईश्वर कर्मों का फल देता है । यहाँ पर बादरायण को स्पष्ट रूप से सिद्धान्त सूत्र (३।२।३८) का पोषक माना गया है । शंकराचार्य ने वे सू० के अन्तिम सूत्र (४।४।२२) में जो बातें कही हैं उनसे स्पष्ट प्रकट होता है कि बादरायण सम्पूर्ण वेदान्तसूत्र के प्रणेता थे। इस विषय में हमें कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल पाता कि जब ५५५ सूत्रों के प्रणेता बादरायण थे तो वेदान्तसूत्र में बादरायण के नाम ६ बार क्यों आये हैं और जब २७०० सूत्रों के प्रणेता जैमिनि के नाम से विख्यात हैं तो जैमिनि के विचार पांच बार क्यों व्यक्त हैं, जिनमें चार तो ऐसे हैं जो पू० मी० सू० के विख्यात लेखक के विचार से सर्वथा मिलते हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर में केवल दो सिद्धान्त कहे जा सकते हैं, यथा--एक तो यह कि इसकी व्यारया नहीं हो सकती और दूसरा यह कि दो जैमिनि एवं दो बादरायण थे । वेदान्तसत्र के प्रणेता से सम्बन्धित समस्या विकट है। शंकराचार्य के समान भास्कर का कथन है कि वेदान्तसत्र के प्रणेता बादरायण थे । उन्होंने वे० स० की टीका का आरम्भ बादरायण को प्रणाम करके किया है, क्योंकि उनके शब्दों में बादरायण ने इस लोक में ब्रह्मसूत्र को भेजा, जो जन्म-बन्धन से लोगों को मुक्त कर देता है । शंकराचार्य के शिष्य पद्मपाद की पञ्चपादिका में बादरायण का अभिवादन किया गया है (आरम्भिक दसरा श्लोक) । रामानज ने विरोधी वक्तव्य दिये हैं। 'श्रीभाष्य' में रामानज ने सभी मद्र परषों से कहा है कि उन्हें पाराशर्य के अमत-रूपी शब्दों का पान करना चाहिए, किन्तु वे स० (२११२४२) के भाष्य में उन्होंने लिखा है कि बादरायण महाभारत के प्रणेता थे, जहाँ पर पाञ्चरात्र-शास्त्र एवं वे० स० का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है (शान्तिपर्व, अध्याय ३३४-३३६)। किन्तु रामानुज के गरु के गुरु यामुनाचार्य के मत से वे० सू० के प्रणेता थे बादरायण । शंकराचार्य के कहने पर भी उनके वेदान्तसत्र के भाग्य की प्रसिद्ध टीका 'भामती' के रचयिता वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मसूत्र के लेखक वेदव्यास का अभिवादन किया है। पराशरमाधवीय के दो मत हैं--जिल्द १, भाग-१, पृ० ५२, ६७; जिल्द २, भाग-२, पृ० ३ एवं २७५ में वे सू० के प्रणेता बादरायण कहे गये हैं, किन्तु कुछ स्थानों पर वेदान्तसूत्र को वेदव्याससूत्र कहा गया है (जिल्द १. भाग-१, पृ० ५६, ११३)। इन विभिन्न मतों से एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या बादरायण , जो वेदान्तसूत्र के प्रणेता कहे जाते हैं, और वेदव्यास एक ही व्यवित हैं या भिन्न ? शंकराचार्य के भाष्य से प्रकट है कि वे इन दोनों को भिन्न मानते हैं । उदाहरणार्थ, वे० सू० (१।३।२६।) पर ११. अत एव च नित्यत्वम् । वे० सू० (१।३।२६); भाष्य- 'वेदव्यासश्चैवमेव स्मरति । युगान्तेन्तहितान् वेदान्सेतिहासान्महर्षयः । लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाता: स्वयम्भुवा ॥' इति । यह श्लोक शान्तिपर्व (२१०।१६) में आया है; स्मरन्ति च । वे० सू० (२।३।४७), भाष्य- 'स्मरन्ति च व्यासादयो यथा जैवेन दुःखेन न परमात्मा दुःखायत इति । तत्र यः परमात्मा हि स नित्यो निर्गुणः स्मृतः। न लिप्यते फलश्चापि पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ कर्मात्मा त्वारोपोसौ मोमबन्धः स य ज्यते । स सप्तदशकेनापि राशिना युज्यते पुनः' इलि। ये दोनों शान्ति पर्व में आये हैं (३५२।१४-१५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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