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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास बात उमारी है किन्तु 'ब्रह्मवादी कहते हैं ऐसा नहीं कहकर 'मीमांसन्ते' कहा है। अथर्ववेद (१३) में आया है'बहुधा लोगों ने पृथक्-पृथक् मीमांसा करते हुए उसके कर्मों को इस पृथिवी पर निरीक्षित किया।' इस वेद ने पुनः एक स्थान (६।६।२४) पर 'मीमांसित' एवं 'मीमांसमान' शब्दों का प्रयोग किया है। शांखायनब्राह्मण (२१८) में आया है-'वे मीमांसा करते हैं कि सूर्योदय के पश्चात् या पूर्व होम करना चाहिए।' ते. बा. (३।१०।६) ने 'मीमांसा' शब्द का प्रयोग किया है। शतपथब्राह्मण ने भी काण्व के पाठान्तर में ऐसा किया है (से० बु० ई०, जिल्द २६, पाद-टिप्पणी-१)। छान्दोग्योपनिषद् (५।११।१) में आया है कि पाँच महाश्रोत्रिय लोग, जो महाशाल (बड़े घर वाले या बड़ी सम्पत्ति वाले) थे और प्राचीनशाल औपमन्यव नाम से पुकारे जाते थे, तथा अन्य लोग एकत्र हुए और इस प्रश्न पर मीमांसा करने लगे कि 'हम लोगों का आत्मा क्या है और ब्रह्म क्या है?' ते० उप० (२।८) में आया है-'यही आनन्द की मीमांसा है। दोनों वचनों में 'मीमांसा' का अर्थ उच्च दार्शनिक विषयों पर 'विचार-विमर्श करना' (विचारण) है। पाणिनि (३।१।५-६) ने 'सन्' प्रत्यय के साथ सात धातुओं के निर्माण की बात कही है, जिनमें एक है 'मीमांसते' जो 'मान्' से बना है, और काशिका ने इतना जोड़कर कहा है कि इसका अर्थ है 'जानने की इच्छा, अर्थात् छानबीन एवं अन्तिम निष्कर्ष', सम्भवत: उसके कथन के संदर्भ में ये सूत्र रहे हैं, यथा--'अथातो धर्म-जिज्ञासा एवं 'अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा'। उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से प्रकट हुआ होगा कि उपनिषदों के बहुत पहले से 'मीमांसा' शब्द का अर्थ था'किसी विवाद के विषय में विचार-विमर्श करना तथा उस विषय में कोई निर्णय करना या निष्कर्ष उपस्थित करना।' वही शब्द एक निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होने लगा (यथा उपर्युक्त याज्ञ० में), अर्थात् धर्म के विषय में छानबीन तथा व्याख्यान एवं तर्क द्वारा सन्देहात्मक विषयों पर निर्णय करना । कुछ धर्मसूत्र शुद्ध रूप से मीमांसा की उक्तियों एवं सिद्धान्तों से सुपरिचय प्रकट करते दृष्टिगोचर होते हैं। उदाहरणार्थ, गौतम (११५) में आया है-'तुल्यबलयोर्विकल्पः', अर्थात् 'जब दो तुल्य प्रमाण वाले ग्रन्थों में विरोध हो तो विकल्प होता है। केवल आपस्तम्बधर्मसूत्र में ही मीमांसा-सम्बन्धी उक्तियों एवं सिद्धान्तों का विरल प्रयोग मिलता है, अन्य धर्मसूत्रों में नहीं । इसमें आया है--'आनुमानिक आचार (ऐसे वैदिक वचन पर आधारित, जो अब लुप्त हो चुका हो) से भावात्मक (उपस्थित) वैदिक वचन अपेक्षाकृत अधिक बलवान होता है । यह जैमिनि (१। ३. प्राचीनशाल औपमन्यवः ... ते हैते महाशाला महाश्रोत्रियाः समेत्य मीमांसां चक्रु: को न आत्मा किं ब्रह्मेति । छा० (५।११।१); सैषानन्दस्य मीमांसा भवति । त० उप० (२८) । ४. तुल्यबलयोविकल्पः । गौतम० (११५); मिलाइए जैमिनि० (१२।३।१०) : एकार्थास्तु विकल्पेरन् समुच्चये ह्यावृत्तिः स्यात्प्रधानस्य; शबर ने व्याख्या की है। ये त्वेकार्था एककार्यास्ते विकल्पेरन् यथा ब्रोहियवौ; देखिए शबर : 'तुल्यार्थयोहि तुल्यविषययोविकल्पो भवति न नानार्थयोः।' (जैमिनि १०।६।३३); मिलाइए मनु (२११४) 'श्रुतिद्वयं तु यत्र स्यात्तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ ।' श्रुतिहि बलीयस्यानुमानिकादाचारात् । आप ० ध० १।१।४।८; मिलाइए 'विरोधे त्वनपेक्षं स्यादसति प्यनुमानम् ।' जै० १॥३॥३; विद्या प्रत्यनध्यायः श्रूयते न कर्मयोगे मन्त्राणाम् । आप० ५० १।४।१२।६; मिलाइए जै० १२।३।१६ : 'विद्यां प्रति विधानाद्वा सर्वकालं प्रयोगः स्यात् ] कर्मार्थत्वात् प्रयोगस्य ।' ; यत्र तु प्रीत्युपलब्धितः प्रवृत्तिर्न तत्र शास्त्रमस्ति। आप०. ध० १।४।१२।११, मिलाइए जै० ४.१०२ : 'यस्मिन् प्रीतिः पुरुषस्य तस्य लिप्सार्थलक्षणाऽविभक्तत्वात ।' Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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