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अध्याय २८ मीमांसा एवं धर्मशास्त्र
याज्ञवल्क्यस्मृति में आया है कि विद्या एवं धर्म के चौदह मूल (कारण या हेतु) हैं', यथा-पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, अंग (छह) एवं वेद (चार)। कुछ लोग ऐसा ही श्लोक मनु का भी कहते हैं, किन्तु विद्यमान मनुस्मृति में वह नहीं मिलता। यहाँ 'मीमांसा' शब्द के उद्भव एवं अर्थ का ज्ञान आवश्यक है, यह भी जानना अपेक्षित है कि इस शास्त्र के प्रमुख सिद्धान्त क्या हैं, इतना ही नहीं; हमें यह भी जानना चाहिए कि व्याख्या करने के महत्त्वपूर्ण नियम क्या हैं और धर्मशास्त्र के विषयों से सम्बन्धित कौन-कौन-सी उक्तियाँ हैं। हम यहाँ इस शास्त्र के कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों एवं उनकी तिथियों पर भी प्रकाश डालेंगे।
'मीमांसा' शब्द अति प्राचीन है। तं० सं० (७३५१७।१) में आया है-'ब्रह्मवादी लोग मीमांसा करते हैं (प्रश्न पर विचार करते हैं कि एक मिति (दिन) त्यागी जाय या नहीं।' यहाँ 'मीमांस' का क्रिया-रूप किसी सन्देहात्मक बात के विषय में विचार-विमर्श करने या खोजबीन करने के तथा किसी निर्णय पर पहुँच जाने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। और भी देखिए तै० सं० (६।२।६।४-५) जहाँ इसी अर्थ में 'मीमांसन्त' एवं 'मीमांसेरन्' का प्रयोग हआ है। कतिपय स्थानों पर त० सं० ने ब्रह्मवादियों द्वारा मीमांसा किये जाने का प्रश्न उठाया है, किन्तु वहाँ 'मीमांसन्ते' या तत्सम्बन्धी शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। देखिए तै० सं० २।५।३७ (सान्नाग्य के देवता के बारे में), ५५॥३।२, ६।१।४।५, ६।१।५।३-५। काठकसंहिता (८।१२) ने छानबीन करने के लिए एक सन्देहात्मक
१. पुराणन्यायमीमांसा....च चतुर्दश ॥ याज्ञ० ११३ । बृहद्योगियाज्ञवल्क्य में यों आया है : पुराणतर्कमीमांसा...चतवश (१२१३)। अपराक (प०६) ने विष्णपुराण (३।६।२७ % वाय. ६१७८) से उद्धत किया है। 'अंगानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या एताश्चतुर्दश ॥' इसे प्रो० टी० आर० चिन्तामणि ने मन का वचन कहा है (जे० ओ० आर०, मद्रास, जिल्द ११, पूरक पृ० १)। यह भविष्य पुराण (ब्राह्मपर्व २।६) में भी है। देखिए इस महाग्रन्थ का अंग्रेजी संस्करण, जिल्द १, पृ० ११२, पाद-टिप्पणी १६८, जहाँ १४ विद्याओं के लिए औशनसधर्मशास्त्र का उद्धरण है, और देखिए वही, जिल्द ३, पृ० १०, टिप्पणी १७, जहाँ अतिरिक्त विद्याओं के नाम हैं और वे कुल १८ कहीं गयी हैं। याज्ञ० की सूची में आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद एवं अर्थशास्त्र के जोड़ने से १८ विद्याएँ हो जाती हैं। कालिदास के पूर्व भी विद्याएं १४ थीं, देखिए रघुवंश (५।२१) : 'वित्तस्य विद्यापरिसंख्यया मे कोटीश्चतस्रो दश चाहरेति ।'
२. उत्सृज्यां ३ नोत्सृज्या ३ मिति मीमांसन्ते ब्रह्मवादिनस्तद्वाहरुत्सृज्यमेवेति.... ते० सं० (७॥५॥ ७१); व्यावृत्त देवयजने याजयेद् व्यावृरकामं यं पात्रे वा तल्पे वा मीमांसेरन्... नैनं पात्रे न तल्पे मीमांसन्ते । तं ० सं० (६।२।६।४-५)। अन्तिम वाक्य का अर्थ है : 'अन्य लोगों के साथ भोजन करने योग्य है या विवाह से सम्बन्ध स्थापित करने योग्य है, इस विषय में उन्हें कोई सन्देह नहीं है।'
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