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________________ ७४ धर्मशास्त्र का इतिहास चाहिए। इसके उपरान्त तिल-युक्त जल का तर्पण यम को किया जाता है और उसके सात नाम लिये जाते हैं। पुराणों की व्यवस्था के अनुसार नरक के लिए (जिससे नरक में न पड़ना पड़े) एक दीप जलाना चाहिए और उसी सन्ध्या में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि के मन्दिरों में, मठों, अस्त्रागारों, चैत्यों (वे उच्च स्थल जहाँ पुनीत वृक्ष-पौधे लगे रहते हैं), सभाभवनों, नदियों, भवन-प्राकारों, उद्यानों, कूपों, राजपथों एवं अन्तःपुरी में, सिद्धों, अर्हतों (जैन साधुओं), बुद्ध, चामुण्डा, भैरव के मन्दिरों, अश्वों एवं हाथियों की शालाओं में दीप जलाने चाहिए (भविष्योत्तर, १४०।१५-१७)। अन्य ग्रन्थों में ऐसा आया है कि इस दिन स्नान के बीच में अपामार्ग की टहनियों या पत्तियों या तुम्बी या प्रपुन्नाट की शाखाओं को शरीर पर घुमाना चाहिए, जिससे कि नरक (कष्ट) भग जाय और नरकासुर की स्मृति में चार दीप जलाने चाहिए। ऐसा आया है कि चतुर्दशी को लक्ष्मी तैल में और गंगा सभी जलों में निवास करने को दीपावली पर आती हैं और इसलिए जो व्यक्ति प्रातः तैल-स्नान करता है, वह यमलोक नहीं जाता। वर्तमान काल में दक्षिण में लोग चतुर्दशी को स्नान के उपरान्त कारीट नामक कडुवा फल पैर से कुचलते हैं, जो सम्भवतः नरकासुर के नाश का द्योतक है। तैल-स्नान अरुणोदय के समय होना चाहिए, किन्तु यदि किसी कारण ऐसा नहीं किया जा सके तो सूर्योदय के उपरान्त भी यह हो सकता है। धर्मसिन्धु (पृ०१०४) के मत से उस अवसर पर यतियों को भी तैल-स्नान करना चाहिए। सम्भवतः आरम्भिक रूप में यह चतुर्दशी नरकचतुर्दशी कही जाती थी, क्योंकि नरक से बचने के लिए यम को प्रसन्न रखना पड़ता है। आगे चलकर प्राग्ज्योतिष नगरी (कामरूप) के राजा नरकासुर के कृष्ण द्वारा वध की कथा इसमें संयुक्त हो गयी। जब पृथिवी का संपर्क कृष्ण के वराहावतार से हुआ तो नरकासुर की उत्पत्ति हुई। इसी कथा से नरकचतुर्दशी का मिलन हो गया। आजकल केवल नरकासुर का नाममात्र ले लिया जाता है, यमतर्पण नहीं किया जाता। विष्णु० (५।१९) एवं भागवत० (१०१५९, उत्तरार्ध) में नरकासुर के उपप्लवों (उपद्रवों, लूटखसोट) का वर्णन है। उसने देवताओं की माता अदिति के आभूषण छीन लिये, वरुण को छत्र से वंचित कर दिया, मन्दर पर्वत के मणिपर्वत शिखर को छीन लिया, देवताओं, सिद्धों एवं राजाओं की १६१०० कन्याएँ हर ली और उन्हें प्रासाद में बन्दी बना लिया। कृष्ण ने उसे मार डाला। यदि पुराणों की बातें ऐतिहासिक तथ्य हैं तो उन्होने कृपा कर उन कन्याओं से विवाह करके उन अभागी कन्याओं की सामाजिक स्थिति उन्नत कर दी। ६. मदनपारिजात (२९६) ने वृद्धमनु से उद्धृत कर विभिन्न नाम दिये हैं-'यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च। वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ॥ औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने । वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः॥' व० क्रि० कौ० (पृ.० ४५९), नि० सि० (पृ० १९९) में भी इसका उद्धरण है। और देखिए पद्म० (६।१२४।१३-१४)। चतुर्दशी होने के कारण यम के १४ नाम दिये हुए हैं। इन १४ नामों के लिए देखिए भविष्योत्तर० (१४०।१०) एवं हेमाद्रि (व्रत, भाग २, पृ० ३५२)। . अरुणोदयकालस्यैव मुख्यत्वप्रतिपादनात् । केनचिन्निमित्तेनारुणोदयोदयकालेतिक्रान्ते सूर्योदयोत्तरमप्यभ्यंगः कर्तव्यः । पु० चि० (पृ० २४१)। और देखिए ध० सि० (पृ० १०४) । ८. यमाय नमः यमं तर्पयामि' के रूप में यम तर्पण होता है। यह तर्पण दक्षिणदिशाभिमुख होकर तिलयुक्त जल से तीन अंजलियों से किया जाता है और जब पिता जीवित हों तो सव्य होकर या मत हों तो अपसव्य होकर ऐसा करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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