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जन्माष्टमी व्रत, पारण
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गानों एवं नृत्यों में संलग्न रहना चाहिए। दूसरे दिन प्रातः काल के कृत्यों के सम्पादन के उपरान्त, कृष्ण- प्रतिमा का पूजन करना चाहिए, ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए, सोना, गौ, वस्त्रों का दान 'मुझ पर कृष्ण प्रसन्न हों' शब्दों के साथ करना चाहिए। उसे "यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत् । भौमस्य ब्रह्मणो गुप्त्यं तस्मै ब्रह्मात्मने नमः ॥ जन्म-वासुदेवाय गोब्राह्मणहिताय च । शान्तिरस्तु शिव चास्तु" का पाठ करना चाहिए तथा कृष्ण-प्रतिमा किसी ब्राह्मण को दे देनी चाहिए और पारण करने के उपरान्त व्रत को समाप्त करना चाहिए (देखिए स० म०, पृ० ५५; ति० त०, पृ० ४३ ) ।
विधि के अन्तरों के लिए देखिए ध० सि० ( पृ० ६८-६९ ) । धर्मसिन्धु में आया है कि शूद्रों को वैदिक मन्त्र छोड़ देने चाहिए, किन्तु वे पौराणिक मन्त्रों एवं गानों का सम्पादन कर सकते हैं। समय मयूख एवं तिथितत्त्व में वैदिक मन्त्रों के प्रयोग का स्पष्ट संकेत नहीं मिलता ।
मध्यकालिक निबन्धों में जन्माष्टमी व्रत के प्रमुख उद्देश्य के विषय में चर्चा उठायी गयी है । कुछ लोगों के मत से उपवास एवं पूजा दोनों प्रमुख हैं ( भविष्य ०, समयमयूख, पृ० ४६; हे०, काल, पृ० १३१ में उद्धृत ) । स० म० ने व्याख्या के उपरान्त निष्कर्ष निकाला है कि उपवास केवल 'अंग' है, किन्तु पूजा ही प्रमुख है। किन्तु तिथितत्त्व ने भविष्य एवं मीमांसासिद्धान्तों के आधार पर कहा है कि उपवास ही प्रमुख है और पूजा केवल 'अंग' ( अर्थात् सहायक तत्त्व) है। अब हम इस विषय को यहीं छोड़ते हैं, विशेष विवरण के लिए देखिए हारीत 'दनिर्णयी' का एक अंश 'जयन्ती निर्णय', जिसमें इस विषय का विशद विवेचन किया गया है।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि प्रत्येक व्रत के अन्त में पारण होता है, जो व्रत के दूसरे दिन प्रातः काल किया जाता है। जन्माष्टमी एवं जयन्ती के उपलक्ष्य में किये गये उपवास के उपरान्त पारण के विषय में कुछ विशिष्ट नियम हैं। ब्रह्मवैवर्त ० ( कालनिर्णय, पृ०२२६) में आया है -- ' जब तक अष्टमी चलती रहे या उस पर रोहिणी नक्षत्र रहे तब तक पारण नहीं करना चाहिए; जो ऐसा नहीं करता, अर्थात् जो ऐसी स्थिति में पारण कर लेता है वह अपने किये कराये पर पानी फेर देता है और उपवास से प्राप्त फलों को नष्ट कर देता है; अतः तिथि तथा नक्षत्र के अन्त में ही पारण करना चाहिए।' और देखिए नारदपुराण (का० नि०, पृ० २२७; ति० त०, पृ०५२), अग्निपुराण, तिथितत्त्व एवं कृत्यतत्त्व ( पृ० ४४१) आदि । पारण के उपरान्त व्रती 'ओं भूताय भूतेश्वराय भूतपतये भूतसम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः' नामक मन्त्र का पाठ करता है । कुछ परिस्थितियों में पारण रात्रि में भी होता है, विशेषतः वैष्णवों में, जो व्रत को नित्य रूप में करते हैं न कि काम्य रूप में ।
'उद्यापन' एवं 'पारण' के अर्थों में अन्तर है। एकादशी एवं जन्माष्टमी जैसे व्रत जीवन भर किये जाते हैं । उनमें जब कभी व्रत किया जाता है तो पारण होता है, किन्तु जब कोई एक व्रत केवल एक सीमित काल तक करता है और उसे समाप्त कर लेता है तो उसकी परिसमाप्ति का अन्तिम कृत्य है उद्यापन |
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