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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास यदि पंचमी चतुर्थी या षष्ठी से संयुक्त हो तो षष्ठी से संयुक्त पंचमी को वरीयता प्राप्त होती है । व्रतकालविवेक में आया है कि हस्त नक्षत्र में या उससे विहीन ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को मनसाव्रत किया जाता है जिससे मनसा देवी विषधर सर्पों से व्रती की रक्षा करती हैं । " ५२ भारत में सर्प पूजा का आरम्भ कब हुआ यह एक कठिन समस्या है। ऋग्वेद में इस विषय में कोई संकेत नहीं मिलता। इतना अवश्य आया है कि इन्द्र अहि (सर्प) के शत्रु हैं (ऋ०२/३०१, २।१९।३) । अहि-हत्या की चर्चा भी हुई है ( ऋ० १ १६५ ६, ३४७१४) । और देखिए फण वाले अहिः को ( ऋ० ६।७५।१४ ) । बृ० उप० ( ४/४/७ एवं प्रश्न ० ४।५) में साँप ('पादोदर', जिसके पाँव शरीर के भीतर होते हैं) के केंचुल का उल्लेख है । और देखिए (ऋ०९/८६/४४) । तं० सं० (४/२/८१३) एवं बाज० सं० ( १३।६-८ ) में सर्पों को नमस्कार किये जाने की ओर संकेत है । अथर्ववेद ( ८।१४ । १३-१५) में तक्षक एवं धृतराष्ट्र नामक सर्पों के नाम आये हैं। काठक सं० कहा है, किन्तु ऐत० ब्रा० (१३।७) ने देवों, इससे प्रकट है कि पश्चात्कालीन वैदिक काल में ( ५-६ ) ने पितरों, सर्पों, गन्धर्वों, जलों एवं ओषधियों को 'पंचजन' मनुष्यों, गन्धर्वी, अप्सराओं, सर्पों एवं पितरों को 'पंचजन' माना है। सर्प लोग गन्धर्वो के समान एक जाति के अर्थ में लिये जाने लगे थे । आश्व० ० (२।१।१-१५), पारस्कर गृ० ( २०१४ ) एवं अन्य गृह्यसूत्रों में श्रावण की पूर्णिमा को 'सर्पबलि' 'कृत्य किये जाने का उल्लेख है। देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २ | महाभारत में नागों का बहुत उल्लेख है । आदि० ( ३५ वा अध्याय) ने बहुत-से नागों (शेष मे आरम्भ कर) का उल्लेख किया है और इसके १२३।७१ में तथा उद्योग० (१०३।९-१६) में नागों के बहुत नाम आये हैं। अर्जुन ने जब १२ वर्ष के ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था तो वे नागों के देश (ऐसी जाति जिसका चिह्न 'नाग' था ) में गये थे और अपनी Leर आकृष्ट नागकुमारी उलूपी से विवाह किया था । अश्वमेध के अश्व की रक्षा में आये हुए अर्जुन से मणिपुर में चित्रांगदा के पुत्र बभ्रुवाहन ने युद्ध किया और अर्जुन को मार डाला, जो संजीवन रत्न से पुनर्जीवित किये गये ( आश्वमेधिक पर्व, अध्याय ७९-८१ ) । सर्पों का सम्बन्ध विष्णु एवं शिव दोनों से है । विष्णु शेष नाग के फण की शय्या पर सोते हैं और शिव नागों को गले में यज्ञोपवीत के रूप में रखते हैं (वनपर्व २०३।१२ २७२।३८-३९; अनुशासन० १४ । ५५ ) । भगवद्गीता ( १०।२८-२९) में भगवान् कृष्ण ने अपने को 'सर्पों' में वासुकि तथा 'नागों' में अनन्त कहा है। 'सर्प' एवं 'नाग' क्या अन्तर किया गया है, स्पष्ट नहीं हो पाता । सम्भवतः 'सर्प' शब्द सभी रेंगने वाले जीवों तथा 'नाग' फन या फण वाले साँप के लिए प्रयुक्त है। पुराणों में नागों के विषय में बहुत-सी कथाएँ हैं। देखिए वोगेल कृत 'इण्डिएन सर्पेण्ट लोर' (१९२६) जहाँ महाभारत, पुराणों एवं राजतरंगिणी के आधार पर कष्टसाध्य शोध कार्य उपस्थित किया गया है । सम्भवतः वर्षा ऋतु में सर्प दंश से बहुत से लोग मर जाया करते थे, अतः सर्प-पूजा का आरम्भ सर्प-मय से ही हुआ । आजकल भी प्रति वर्ष प्रायः १०,००० व्यक्ति भारत में सर्प दंश से मृत हो जाते हैं, १. यथा कृत्यकामधेनुघृतो व्यासः । ज्येष्ठशुक्लदशम्यां तु हस्तक्षे ब्रह्मरूपिणी । कश्यपान्मनसा देवी जातेति मनसा स्मृता । तस्मात्तां पूजयेत्तत्र वर्षे वर्षे विधानतः । अनन्ताद्यष्ट नागांश्च नरो नियमतत्परः ॥ ... हस्तनक्षत्रयुतदशाम्यां पूजयेदित्येको विधिः । केवलदशम्यामपीत्यपरश्च । कालविवेक ( इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, जिल्द १७, संख्या ४, पूरक पृ० १६ ) । २. नागयज्ञोपवीती च नागचर्मोत्तरच्छदः । अनुशासन ० ( १४/५५ ) । रुद्र का वर्णन यों है-- सहस्रशीर्षा पुरुषः स्त्रावतीन्द्रियः । फटा सहस्रविकटं शेषं पर्यकभाजनम् ॥ वनपर्व (२७२१३८) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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