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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास वैदिक काल में चातुर्मास्य नामक यज्ञ होते थे जो फाल्गुन (या चैत्र), आषाढ़ एवं कार्तिक की पूर्णिमा के दिवसों में सम्पादित होते थे और क्रम से वैश्वदेव, वरुणप्रघास एवं साकमेध नाम से पुकारे जाते थे (शुनासीरीय नामक चौथे यज्ञ की चर्चा यहाँ नहीं होगी)। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २। आप० श्री० सूत्र (८।४।१३) में स्पष्ट रूप से आया है कि वैश्वदेव (चातुर्मास्य के पर्व) का सम्पादन वसन्त में तथ, वरुणप्रघास का वर्षा ऋतु में होता है। यह ध्यान में रखने योग्य है कि इन ऋतु-सम्बन्धी यज्ञों में व्रती के. कुछ कृत्यों का त्याग करना होता था, यथा शय्या-शयन, मांस, मधु, नमक, मैथुन एवं शरीरालंकरण ज. एकादशीव्रत के प्रतिबन्धों से मिलते हैं। याज्ञ० (१।१२५) ने सोम यज्ञ को धनिक के लिए प्रति वर्ष करने की व्यवस्था दी है (अर्थात् इसे नित्य ठहराया है)। यही बात प्रत्येक अयन में पशु बन्ध के लिए तथा आग्रयणेष्टि (जो नवान्न होने पर किया जाता है) एवं चातुर्मास्यो के लिए भी प्रयुक्त हुई है। यहाँ पर वैदिक चातुर्मास्यों की ओर संकेत किया गया है। ये पौराणिक काल के चातुर्मास्य व्रत नहीं हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति में 'व्रत' शब्द प्रायश्चित्त के अर्थ में प्रयुक्त है (३।२५१, २५२, २५४, २६६, २६९, २८२, २९८, ३००)। उसमें 'व्रत' शब्द ब्रह्मचर्य के अर्थ में भी आया है (यथा ३३१५); और भोजन-व्यवस्था के अर्थ में मी 'वत' का प्रयोग है (३।२८९)। कहीं भी किसी दिन (तिथि), नक्षत्र आदि में किये जाने वाले कृत्यों के अर्थ में व्रत' शब्द नहीं आया है, जैसा कि हम पुराणों में पाते हैं। इससे प्रकट होता है कि याज्ञवल्क्यस्मृति के काल तक पुराणों में वर्णित व्रतों को प्रधानता नहीं प्राप्त हो सकी थी। इसके १००० से अधिक श्ले कों में कोई भी पौराणिक अर्थ में 'व्रत' शब्द का प्रयोग नहीं करते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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