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________________ एकादशी के विधि-निषेध अन्य तिथियों की भाँति एकादशी भी दो प्रकार की होती है, यथा सम्पूर्णा एवं विद्धा या खण्डा । जब तिथि ६० घटिकाओं की हो और सूर्योदय से आरम्भ हो तो उसे सम्पूर्णा कहते हैं। गरुड़० एवं भविष्य के मत से वही एकादशी सम्पूर्णा है जो सूर्योदय के पूर्व दो मुहूर्ती ( अर्थात् ४ घटिका पूर्व ) से आरम्भ होती है और जब वह दिन भर रहने वाली होती है। नारद एवं अन्य पुराणों ने दशमी से संयुक्त एकादशी की निन्दा की है । गान्धारी ने दशमी से संयुक्त एकादशी को उपवास किया, अतः उसके सौ पुत्र महाभारत में मारे गये । नारद० (पूर्वार्ध, अध्याय २९) ने एकादशी एवं द्वादशी का विवेचन किया है। ४७ ब्रह्मवैवर्तपुराण ( हे०, काल, पृ० २५५ - २५९) में एकादशी के चार वेधों का उल्लेख है, यथा अरुणोदय-वेध, अतिवेध, महावेध एवं योग । किन्तु यहाँ पर इनका वर्णन नहीं किया जायगा । वैष्णवों के लिए दशमी के सूर्योदय के उपरान्त ५६ घटिकाओं से अधिक विस्तृत होने पर जब एकादशी का आरम्भ हो जाता है और वह दूसरे दिन पूरे दिन भर रहती है तब इसी को अरुणोदय- वेध कहा जाता है, और वैष्णव लोग ऐसी एकादशी को जो अरुणोदय वेध के उपरान्त आती है, उपवास नहीं कर सकते। यही बात तब भी होती है जब दशमी सूर्योदय के पूर्व ३, २ या १ घटिका तक चली आयी रहती है या दशमी तब तक रहती है जब तक सूर्य उदित होता रहता है और एकादशी का आरम्भ होता है (अर्थात् जब एकादशी सूर्योदयवेध वाली रहती है) । ऐसी स्थिति में भी उपवास नहीं होता, प्रत्युत वह द्वादशी को होता है। यदि द्वादशी तीन दिनों तक रहती है तो उसी दिन उपवास होता है जिस दिन द्वादशी सम्पूर्णा होती है और दूसरे दिन जब द्वादशी का अन्त होता है, पारण किया जाता है। उपर्युक्त दशाओं के अतिरिक्त अन्य स्थितियों में एकादशी के दिन उपवास तथा द्वादशी के दिन पारण होता है । नारद० (पूर्वार्ध, २० ४५) में आया है कि जब दो एकादशियाँ हों, चाहे शुक्ल पक्ष में या कृष्ण पक्ष में, गृहस्थ को प्रथम में तथा यतियों को दूसरी में उपवास करना चाहिए। संन्यासियों एवं विधवाओं के लिए वैष्णवों के नियम ही व्यवस्थित हैं। स्मार्त (वैष्णवों के अतिरिक्त अन्य ) लोग अरुणोदयवेध से प्रभावित नहीं होते, वे सूर्योदयवेध का सिद्धान्त अपनाते हैं, अर्थात् यदि सूर्योदय के पूर्व दशमी हो और एकादशी सूर्योदय से आरम्भ होती हो तो स्मार्त लोग एकादशी को उपवास करते हैं । भोजन, शारीरिक एवं मानसिक कार्यों के विषय में कुछ प्रतिबन्ध हैं जो कि संकल्प से लेकर पारण तक एकादशी व्रत में चलते रहते हैं ( हे०, व्रत, माग १, पृ० १००८ ) । किसी व्यक्ति के मृत हो जाने पर भी यह व्रत नहीं टूटता । क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रिय निग्रह, देव- पूजा, होम, सन्तोष एवं अस्तेय नामक सामान्य धर्म सभी व्रतों में पालित होते हैं । दशमी, एकादशी एवं द्वादशी पर विभिन्न नियम हैं, किन्तु ये एकदूसरे से मिल से जाते प्रकट होते हैं। दशमी के लिए शाक, मांस, मसूर की दाल, (एकभक्त के उपरान्त) पुनर्भोजन, मैथुन, द्यूत, अधिक जलसेवन - वैष्णव लोगों को इनका त्याग करना चाहिए । मत्स्य ० ( हे०, काल, पृ० १९३) के अनुसार निम्न बारह त्याज्य हैं— काँसे के पात्र, मांस, सुरा, क्षौद्र (मधु), तैल, असत्य भाषण, व्यायाम, प्रवास (यात्रा), दिवास्वाप ( दिन का शयन), धनार्जन, तिलपिष्ट, मसूर की दाल । एकादशी व्रत के उपवास के दिन बहुत से प्रतिबन्ध हैं, आगे कुछ दिये जाते हैं- पतितों, पाखण्डों, नास्तिकों आदि से सम्भाषण, असत्य भाषण, द्यूत आदि । व्रत के दिन अन्त्यजों एवं ग्राम के बाहर रहने वालों से न बात करना तथा न उन्हें देखना, रजस्वला, पातकियों, सूती नारियों (जिसने हाल ही में जनन किया हो ) से भी सम्भाषण करना या उनको देखना वर्जित है । और देखिए देवल ( कृत्यकल्प, व्रत, पृ० ४, कृ० र०, पृ० ५७ आदि में उद्धृत), राजमार्तण्ड (१९६७) एवं व्यास (गरुड़०, ११२८/६७; हे०, काल०, पृ० २०१ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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