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________________ श्री अरविन्द घोष और ऋग्वेदार्य (ऋत एवं सत्य ) ૪૭૨ यह कह दिया कि हमें सत्य के मार्ग का अन्वेषण करना चाहिए ( प्राक्कथन, पृ० ३० ) । हमने इस महाग्रन्थ के चौथे खण्ड में देख लिया है कि ऋग्वेद में ऋत का अर्थ तीन प्रकार का है, यथा - ( १ ) जगत् में नियमित एवं सामान्य व्यवस्था; (२) देवों के विषय में सम्यक् एवं व्यवस्थित विधि; (३) 'मानव का नैतिक आचरण ।' ऋग्वेद में 'ऋत' वही नहीं है जो 'सत्य' है, प्रत्युत दोनों में अन्तर प्रकट किया गया है। ऋग्वेद (५।५१/२) में विश्वेदेवों को 'ऋतधीतय:' ( जिनके विचार ऋत पर अटल या स्थिर हैं) एवं 'सत्यधर्माण:' (जिनके धर्म या व्यवस्थाएँ या नियम सत्य हैं या स्थिर हैं ) कहा गया है और ऋषि ने उनसे यज्ञ में आने के लिए तथा अग्नि की जिह्वा से ( आज्य एवं सोम ) पीने के लिए प्रार्थना की है। ऋग्वेद (१०।१९०।१ ) में ऋत एवं सत्य दोनों को ( सृष्टिकर्ता के) कठिन एवं देदीप्यमान तप से उत्पन्न कहा गया है। ऋग्वेद में 'ऋत' का अर्थ, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, बहुत व्यापक है, उसका सम्बन्ध एक महान् धारणा से है, किन्तु 'सत्य' का अर्थ एक संकुचित रूप में है, यथा 'मात्र 'सत्य' या स्थिर व्यवस्था । ऋग्वेद (९।११३।४ ) में सोम को ऋत, सत्य एवं श्रद्धा की घोषणा करने वाला कहा गया है।"" अतः जब श्री अरविन्द 'ऋत' का अर्थ 'सत्य' लगाते हैं तो वे बड़ी त्रुटि करते हैं और अपने त्रुटिपूर्ण अनुवाद से महान् निष्कर्ष निकालने पर उतारू हो जाते हैं । इसी प्रकार श्री अरविन्द ने 'ऋतचित्' को 'सत्य - चित्' ' ( ट्र ुथ - कांशस) के अर्थ में लेकर त्रुटि की है ( ट्रुथ - कांशस का अर्थ, उनके अनुसार, चाहे जो हो) । इस विषय में देखिए उनका प्राक्कथन ( फोरवर्ड, पृ० ३० ) । पृ० ४६ में उनके शिष्य श्री कपाली शास्त्री एक पग आगे बढ़कर कहते हैं कि मन्त्रों में सत्य ज्ञान को ऋतचित् (द्र ुथ - कांशसनेस) कहा गया है। ऐसा लगता है कि गुरु एवं शिष्य दोनों ब्रह्म के लिए प्रयुक्त 'सत् + चित् + आनन्द में संलग्न 'चित्' के फेर में पड़ गये हैं। दोनों ने 'ऋतचित्' को 'ऋत' एवं 'चित्' दो पृथक् वस्तुओं के अर्थ में ले लिया है। 'ऋतचित्' शब्द ऋग्वेद में पाँच बार आया है, यथा १।१४५१५, ४१३४, ५।३।९ ( यहाँ 'ऋतचित्' "अग्नि की उपाधि है), ७१८५१४ ( यहाँ यह होता का विशेषण है) एवं ४।१६।१० ( यहाँ यह इन्द्र की पत्नी शची के सन्दर्भ में नारी शब्द की विशेषता बताता है) में।" प्रस्तुत लेखक को आश्चर्य होता है कि गुरु एवं शिष्य दोनों ने इन स्थलों पर प्रयुक्त 'ऋतचित्' के अर्थ को जानने का प्रयत्न क्यों नहीं किया। उन्होंने ऋ० २।२३।१७ में 'प्रयुक्त 'ऋणचित्' की ओर, जो ब्रह्मणस्पति की उपाधि है, अपना ध्यान नहीं दिया। श्री अरविन्द एवं श्री कपाली शास्त्री के अन्य अप्रामाणिक प्रस्तावों एवं निष्कर्षो की चर्चा करने के लिए यहाँ स्थान नहीं है । अब यहाँ श्री अरविन्द के अन्तिम निष्कर्ष को उपस्थित किया जा रहा है ( प्राक्कथन, पृ० २९ ) -- T १०६. ऋतषीतय भा गत सत्यधर्माणो अध्वरम् । अग्नेः पिबत जिह्वया ॥ ० ५।५११२; तं च सत्यं aretaraसोsध्यजायत । ततो राज्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥ ऋ० १०।१९०।१; ऋतं ववभूतयुम्म सत्यं ववन् सत्मकर्मन् । भद्धां ववन् सोम राजन् यात्रा सोम परिष्कृत इन्द्रायेन्दो परि रुव ॥ ऋ० ९।११३।४। १०७. व्यब्रवीत् वयुना मत्येभ्योऽग्निविदां ऋतचिद्धि सत्यः ॥ श्र० १।१४५/५ । यह ब्रष्टव्य है कि यहाँ ' चित्' एवं 'सत्य' दोनों अग्नि की उपाधियां हैं। इन दोनों को युवक-युवक अर्थ वाला मानना ही पड़ेगा। 'ससुक्रतुर्ऋतचिवस्तु होता य आदित्य शवसा वां नमस्वान् । ०७१८५१४, जिसका अर्थ यों है : 'हे अदिति के पुत्रो, वह होता, जो तुम्हें शक्ति ( उच्च स्वर) के साथ नमस्कार करता है, जो हृत जानता है (नैतिक चरित्र या जगत्-सम्बन्धी नियम जानता है) वह अच्छे कमौ (या इच्छा) वाला व्यक्ति बने ।' १।१४५१५ में 'सत्य' शब्द का अर्थ होगा सच्चा या शुद्ध। 'चित्' शब्द 'थि' (एकत्र करना) से या 'चित्' (जानना) से निष्पन्न हो सकता है। १०८. सचिवृणया ब्रह्मणस्पतिहो हन्ता मह ऋतस्य घर्तरि ॥ ऋ० २।२३।१७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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