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भक्ति का स्वरूप (परिभाषा) हो सकती है-'भक्ति का सर्वोच्च रूप है परमेश्वर में अनुरक्ति' या 'परमेश्वर के प्रति सर्वोच्च अनुरक्ति ही भक्ति है।' शाण्डिल्य के भाष्यकार स्वप्नेश्वर ने प्रथम व्याख्या ठीक मानी है, किन्तु नारदभक्तिसूत्र, तिलक आदि ने दूसरी व्याख्या अपनायी है। स्वप्नेश्वर ने व्याख्या की है--'भक्ति' का सामान्यतः अर्थ होता है 'उसके प्रति अनुराग जिसे जीतना है या जिसकी पूजा करनी है', किन्तु इस शास्त्र में इसका अर्थ है-'मन की ऐसी विशेष स्थिति जिसमें परमेश्वर ही लक्ष्य हो।' ऐसा कहकर स्वप्नेश्वर ने विष्णुपुराण का श्लोक उद्धृत किया है जिसमें भक्त प्रह्लाद ने कहा है-वह अटल प्रीति जिसे अविवेकी लोग सांसारिक वस्तुओं के लिए चाहते हैं, मुझमें से, जो तुम्हें सदैव स्मरण करता है, कभी न हटे।' गीता में भी 'प्रीति' शब्द आया है। उसमें आया है कि ('भक्ति' शब्द 'भज्' धातु से निःसृत हुआ है) "जिनके मन मुझमें लगे हैं, जिनके प्राण मुझे समर्पित हैं, जो एक-दूसरे को बोधित करते रहते हैं, जो मेरे बारे में कहते रहते हैं, वे सदैव तुष्ट रहते हैं और प्रसन्न रहते हैं। इनमें जो सदैव (लगातार) भक्ति में लगे रहते हैं और प्रीतिपूर्वक मेरी सेवा करते रहते हैं, उन्हें मैं ऐसा ज्ञान देता हूँ जिसके द्वारा वे मुझ तक पहुंचते हैं।" स्वप्नेश्वर ने व्याख्या की है कि 'अनुरक्ति' शब्द ('अनु' उपसर्ग के साथ) का प्रयोग यह बतलाने के लिए हुआ है कि ईश्वर के प्रति प्रीति या रक्ति तब उदित होती है जब भक्त ईश्वर का ज्ञान एवं उसकी अन्य उपाधियों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। विष्णुपुराण में 'भक्ति' के स्थान पर 'अनुराग' शब्द प्रयुक्त हुआ है, जहां पर राम एवं उनके भाइयों के स्वर्गारोहण की चर्चा करते हुए ऐसा वर्णन है कि कोसल राजधानी के लोग, जो भगवान् (विष्णु) के उन अवतीर्ण अंशों के प्रति अट्ट श्रद्धा (भक्ति) रखते थे और जिनके मन उनमें लगे थे, उन्हीं के साथ उसी लोक की स्थिति में पहुँच गये। शाण्डिल्य ने आगे कहा है कि यह ऐसा उपदेश है जिससे वह व्यक्ति अमर हो जाता है जो भगवान् में निवास करता है (जो भगवान् में स्थित रहता है)। छान्दोग्य० (१।१।३०) में आया है-'जो ब्रह्म में स्थित रहता है वह अमरत्व प्राप्त करता है।' तात्पर्य यह है कि परमात्मा में स्थित रहने से अमरत्व प्राप्ति की जो बात है उससे व्यक्ति में परमात्मा की जानकारी के लिए प्रयत्न करने या परमात्मा के प्रति परम भक्ति उत्पन्न करने के प्रयत्न के प्रति कोई उदासीनता नहीं आयेगी। यह द्रष्टव्य है कि नारद के सूत्र शाण्डिल्य के सूत्रों के केवल अन्वय मात्र हैं।" शाण्डिल्य में आगे (सूत्र ७) आया है कि भक्ति, ज्ञान की भांति कर्म नहीं है, क्योंकि यह इच्छा के प्रयत्न का
मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । वदामि बुखियोग तं येन मामुपयान्ति ते॥ (१०१९-१०)। 'अनुरक्ति' पर स्वप्नेश्वर ने कहा है-'भगवन्महिमाविज्ञानावन पश्चात् जायमानत्वावनुरक्तिरित्युपतम्।' स्वप्नेश्वर ने विष्णुपुराण (४।४।१ १०३) का हवाला दिया है, यथा--'यपि तेषु भगवशेष्वनुरागिणः कोसलनगरजानपदास्तेपि तन्मनसस्तत्सालोक्यतामेवापुः।' भागवत का कथन है कि परमोच्च भक्ति को.अबाधित (अव्यवहित) एवं अहेतुकी होना चाहिए ('अहेतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरषोत्तम') । भागवत (२२९।१२) । मागे के श्लोक ने परम-लक्ष्य के चार स्तर वर्णित किये है--सालोक्यसाष्टिसामीप्यसायुज्यकत्वमप्युत' (एकत्व पाचवी मर्थात् मन्तिम लक्ष्य है)।
. ७६. सत्संस्थस्यामृतत्वोपदेशात् । शाण्डिल्य (११११३०); स्वप्नेश्वर ने व्याख्या की है--तस्मिन्नीश्वरे संस्था भक्तिर्यस्य स तथोक्तः।' छान्दोग्य में घोषित है-'ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति' (२।२३।१) और यही अर्व बह्मसूत्र (१।१७) 'तनिष्ठस्य मोक्षोपदेशात्' से भी प्रकट होता है।
७७. 'अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः। सा स्वस्मिन् परमप्रेमरूपा। अमृतस्वरूपा । नारदमक्तिसूत्र (१३)।
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